आशादशमी व्रत किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को करते हैं। इस तिथि को प्रात:काल स्नान करके देवताओं की पूजा अचना कर रात्रि में पुष्प रोली चन्दन इत्यादि से दस आशादेवियों की पूजा की जाती है । चारो दिशाओं में दस घी के दीपक जलाकर धुप – दीप, नैवैद्य, फल आदि समर्पित करने होते है । अपने कार्य की सिद्धि के लिये इस तरह से प्रार्थना करने होते है –
आशादशमी व्रत
आशादशमी व्रत की विधि
नौ जुलाई को श्रद्धालु आशा दशमी का व्रत बड़ा फल दाई होता है । इस व्रत के प्रभाव शक्ति से राजपुत्र को अपना राज्य, किसान खेती और वणिक व्यापार में लाभ एवं सन्तान हिन् को सन्तान और कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त किया करती हैं। और पति के चिर – प्रवास हो जाने पर स्त्री उसे जल्दी प्राप्त कर लिया करती हैं |
आशाश्रचशा: सदा सन्तु सिद्धय्नताम मे मनोरथा:।
भवतिनाम प्रसादेन सदा कल्याणमसित्व्ती ||
‘ हे आशा के देवियों ! मेरी आशाएं हमेशा सफल हो जाये, मेरे मनोरथ पूर्ण हो सके, आपके से अनुग्रह है मेरा सदा कल्याण होता रहे ।’
इस प्रकार विधिवत पूजा कर ब्राह्मण को दक्षिणा देकर प्रसाद ग्रहण करने पड़ती है । इसी कर्म से हर एक मास में इस व्रत को करने जरूरत होती है । जब तक मनोकामना पूर्ण न हो इस व्रत को विधिवत करते रहना चहिये। मनोकामना पूर्ण होने पर उद्यापन करने की जरूरत होती है ।
आशादशमी व्रत के उद्यापन विधि
उद्यापन में आशादेवियों की सोने, चांदी अथवा पिष्टातक से प्रतिमा बनाकर घर के आगना में उनकी पूजा करके ऐन्द्री,नैऋति, वारुणी, वाल्व्या,आग्रेयी, याम्या, सौम्या, ऐशनी, अध्: तथा ब्राह्मी – इन दस आशादेवियो से अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि के लिये प्रार्थना करने की जरूरत होती है साथ ही नक्षत्रो, ताराग्रहो, नक्षत्रों,ग्रहों, मातृकाओ, भूत – प्रेत – विनायकों से भी अभीष्ट – सिद्धि करने के लिए प्रार्थना करने जरूरत होती है । पुष्प, गंध,फल, धुप, वस्त्र आदि से उनकी पूजा करनी चाहिये। सुहागिन स्त्रियो को नृत्य – गीत आदि के द्वारा रात्रि जागरण करने की अवसक्ता होती है । प्रात: काल विद्वान् ब्राह्मणों को सब कुछ पूजित पदार्थ निवेदित करने की जरूरत होती है । बन्धु – बांधवों एवं मित्रों के साथ खुश मन से भोजन करना चाहिये।
व्रत कथा
प्राचीन काल में निषद देश में नल नाम के एक राजा रहा करते थे। उनके भाई जुए में जब उन्हें पराजित के देते है, तब नल अपनी भार्या दमयन्ती के साथ राज्य से बाहर चले जाते है । वे प्रतिदिन एक वन से दुसरे वन में भटकते रहते है, केवल वह दोनों जल मात्र से ही अपना जीवन यापन करते थे और जनशून्य भयंकर वनों में घूमते रहा करते थे।
एक बार राजा ने वन में स्वर्ण–सी क्रांति वाले कुछ पक्षियों को देख लिया। उन्हें पकड़ने की इच्छा से राजा ने उनके ऊपर वस्त्र फैला दिया, परन्तु वे सभी उस वस्त्र को लेकर आकाश में उड़ जाते है । इससे राजा बहुत दुखी हो जाते है। वे दमयन्ती को गहरी नीद में देखकर उसे वही छोड़ कर चल दिए ।
दमयन्ती ने निद्रा से उठकर देखा तो नल वहा पर नहीं थे उसने उनको वहा न पाकर वह उस घोर वन में शोर मचा कर रोने लगी। महान दुःख और शोक से संतप्त होकर वह नल के दर्शन की इच्छा से इधर–उधर खोजते हुए वह चेती देश पहुंच पहुंच गयी । वहा वह उन्मत सी रहने लगी। छोटे – छोटे शिशु उसे कोतुहल वश के नाते घेरे रहते थे। किसी दिन मनुष्यों से घिरी हुई उसे चेती देश की राज माता ने देख लिया।
उस समय दमयन्ती चन्द्रमा की रेखा के समान जमींन पे पड़ी हुई थी। उसका मुख मण्डल प्रकाशित कर रहा था। राजमाता ने उसे अपने राजमहल में बुलावा कर ले गयी और पूछा ‘ वरानने ! तुम कौन हो और कहा से आयी हो ? इस पर दमयन्ती ने लज्जित होकर बोली –मैं सैर्न्ध्री हूँ। मैं न किसी के पैर धोती हूँ और न किसी का जूठा खाती हूँ। यहाँ रहते हुए आपको मेरी रक्षा करनी पड़ेगी।
देवी इस प्रतिज्ञा के साथ में यहा रह सकती हूँ। राजमाता ने बोला ‘ ठीक हैं ऐसा ही होगा। तुम्हारे साथ ’ तब दमयन्ती ने वहाँ रहना स्वीकार कर लिया और इसी प्रकार थोड़े वक्त व्यतीत हो गया और फिर एक ब्राह्मण दमयन्ती को उसके माता पिता के घर लेकर के आ गया । पर माता–पिता तथा भाइयों का स्नेह पाने के बाद भी वह पति के बिना बहुत अधूरी और दुखी रहती थी।
एक बार दमयन्ती ने श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलवाकर उससे पूछा – हे ब्राह्मण देव ! आप कोई ऐसा दान एवं व्रत बतलाये , जिससे मेरे पति मुझको दुबारा प्राप्त हो जाये।’ इस पर ब्राह्मण ने बताया – भद्रे ! तुम मनोवांछित सिद्धि देने वाली आशादशमी व्रत को रखा करो।’ तब से दमयन्ती ने पुराणवेता उस ब्राह्मण के बताये अनुशार आशादशमी व्रत का अनुष्ठान करना सुरु कर दिया । उस व्रत के प्रभाव शक्ति से दमयन्ती ने अपने पति को पुन: प्राप्त कर लिया ।
जो इस आशादशमी व्रत को श्रद्धा पूर्वक किया करता हैं, उनके सभी मनोकामना पूर्ण हो जाया करती हैं। यह व्रत स्त्रियो के लिये विशेष श्रेयकर माना जाता है।