![]() |
संघर्ष ही जीवन है पर कहानी |
लोहितपुर गांव के पूरब में एक प्राचीन काली मंदिर था । मंदिर के सामने एक बड़ा - सा बाग था , जिसमें भांति - भांति के फूल खिले रहते । उनकी सुगंध हवाओं पर तैरकर दूर - दूर तक फैलती । मंदिर में भक्त लगातार पूजा - पाठ करते । घंटी की ध्वनि गूंजती रहती ।
संत महादेव दास एक पहुँचे हुए साधक थे । वह काली के भी पुजारी थे । यह रमणीक स्थान उन्हें भा गया । बाग के पास की एक पर्णकुटी में उन्होंने अपना डेरा डाल दिया । त्रिशूल गाड़ दिया । हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित कर दी । अपनी साधना में लग गये । गांव और आस - पास के लोगों तक बात - बात में महादेव दास की प्रसिद्धि पहुँच गई ।
लोग उनके दर्शन को पहुँचने लगे । उनके रूप - रंग को देखकर बहुत प्रभावित हुए । सिर के जटा - जूट कमर को स्पर्श करते । दाढ़ी के सन के समान सफेद केश नाभि को छूते । शरीर पर गेरुआ रंग का ढीला - ढाला चोला । मस्तक त्रिपुंड - मंडित । बड़ी सौम्य , सुघर आकर्षक मूर्ति । लोग उनके चरणों को स्पर्श कर अपने को धन्य मानते ।
संत महादेव दास का बाहरी व्यक्तित्व ही आकर्षक नहीं था । उनका हृदय भी बहुत कोमल था । लोगों का दुःख - दर्द सुन , वह बात ही बात में पिघल जाता । लोगों के दुःख भी कुछ कम न थे । कोई असाध्य रोग से पीड़ित था , तो कोई महाजन के चंगुल में फंसा था । कोई खेती - बाड़ी की चिंता में था । किसी को झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया था , तो किसी की विवाह - योग्य बेटी की शादी नहीं हो पा रही थी ।
सभी महादेव दास के पास अपनी - अपनी समस्याएँ लेकर पहुँचते । वह किसी को निराश नहीं लौटने देते थे । सबको अपना आशीर्वाद देते । अपने सामने रखे एक मटके में रखे कागज के कुछ टुकड़ों में से , एक टुकड़ा निकाल लेने को कहते । सभी पर कोई - न - कोई संदेश होता । उदाहरण के लिए - ' कर्म पर ध्यान रखो , फल अवश्य मिलेगा ।
किसी - किसी पर लिखा होता - ' पड़ोसी से मुकदमा अच्छा नहीं । इसमें धन और श्रम की बरबादी होती है । पंचों से फेसला करा लो । ' कुछ पर ऐसे संदेश होते - ' जो आया है , वह जाएगा भी । रोग की चिकित्सा करा लो पर तुम अमर नहीं हो । ईश्वर ने चाहा तो कुछ दिन और जी लोगे । ' दर्शक अपने - अपने हिस्से का कागज निकाल कर ले जाते ।
उनके अनुकूल पड़ता तो उसके अनुसार आचरण करते । काम का नहीं लगता तो फिर आते । मटके से तब तक कागज निकालते जाते जब तक उनके मन लायक संदेश नहीं मिल जाता । लोग प्रसन्न थे । संत जी के उपदेशों से बहुतों का कल्याण हो रहा था ।
गांव के हज्जाम हरिराम की दूसरी ही समस्या थी । गरीबी उसका पीछा ही नहीं छोड़ती थी । रात - दिन मेहनत के बाद भी दो जून का भोजन दुर्लभ रहता । सब उपाय करके थक गया , तो वह भी संत जी की शरण में पहुँचा । महादेव दास ने उसे आशीर्वाद दिया । फिर मटके से कागज का एक टुकड़ा निकालने को कहा । उसने उसे वहीं पर पढ़ा और अपना सिर पीट लिया उस पर लिखा था- कोई भी एक नियम बना लो । दृढ़ता से उसका पालन करो ।
इससे मेरी गरीबी का क्या बिगढ़ना है ? यह कैसा विचित्र सुझाव है ? ' कागज पढ़कर हरिराम बोल पड़ा- " हमें बाबा जी कुछ भस्म भभूत फुक कर दे दें । हमारे माथे पर हाथ फेर दे । ताकि हमारा उद्धार हो जाए । " उद्धार किसी का भी बैठे - बैठाए नहीं होता । कागज में जो लिखा है , उसका पालन पूरी लगन से करो । दृढ़ता पूर्वक उसका पालन करोगे , तो तुम्हारी गरीबी छू - मंतर हो जाएगी ।
संत महादेव दास ने दिलासा दिया । हरिराम घर लौटकर दुविधा में पड़ गया । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसा कौन - सा निर्णय ले कि उसका निर्वाह वह आसानी से कर सके । सोचते - सोचते उसका सिर चकराने लगा । उसने कई निर्णयों पर विचार किया , सब बेकार निकले ।
उदाहरण के लिए - ' सदा सत्य बोलेगा । ' सोचा , यह नहीं चलेगा । बड़े बड़े ऋषि - मुनि जब इस प्रतिज्ञा पर नहीं टिक सके , तो वह किस खेत की मूली है । -'क्रोध से दूर का भी सम्बंध नहीं रखेगा । ' सोचा , यह भी नहीं चलेगा । आज के छोकरे बाल बनवाकर बिना पैसे दिए ही भागने को तैयार रहते हैं । उन पर क्रोध न करो तो गई कमाई ।
हरिराम कोई निर्णय नहीं ले सका । ज्यादा परेशान रहने लगा , तो उसकी पत्नी से नहीं रहा गया । उसने उसकी बेचैनी का कारण पूछा । हरिराम ने अपनी पत्नी को सब कुछ बता दिया । पत्नी निपुण थी । उसने अपने पति को समझाते हुए कहा- " तुम्हें धर्म - कर्म , सच - झूठ और हिंसा - अहिंसा से क्या लेना - देना ? साधु बाबा ने तो तुम्हें मात्र कोई नियम बना लेने और उसका कठोरता पूर्वक पालन करने को कहा है ।
वही नियम तो नहीं मिलता । " - हरिराम झल्लाकर बोला । " मैं बताती हूँ । ” पत्नी बोली- " कोई नियम बनाना है , तो क्या कठिनाई है ? कोई पाबंदी नहीं , जो चाहे बना लो । " - " तो बनाकर दिखाओ । कहने से करना कठिन होता है । " " तो सुनो , तुम कल सुबह से नित्य आधी घड़ी रात रहते , गांव से लगे बड़े उद्यान में जाओगे । उसका एक चक्कर लगाकर , एक सुंदर - सा गुलाब का फूल तोड़ोगे ।
उसे लोहितपुर के जमींदार की हवेली के पास छोड़कर चले आओगे । ध्यान रहे , उस नियम में कभी कोई ढिलाई नहीं . हो । जाड़ा , बरसात , गरमी , सब में समय पूर्वक उस नियम का निर्वाह . करना होगा । " " ऐसे करने से मेरी सेहत भले ही ठीक जाए , लेकिन हमारी गरीबपना कैसे दूर हो सकती है ? " -हरिराम ने अपना सिर खुजलाते हुए कहा ।
अब नियम तो नियम । संत महाराज के मटके का यही आदेश है , तो आजमाकर देखो । कभी अटपटी बात भी काम की सिद्ध होती हरिराम लाचार था । अपनी बुद्धि नहीं चली , तो पत्नी की बुद्धि से ही चलना था । वह रोज नियम से बाग की सैर करने लगा । होते - होते डेढ़ - दो माह हो गए । कुछ नहीं हुआ ।
वह पत्नी पर चील्लाया- " किस नियम में बांध दिया है ? कोल्हू के बैल की तरह दो महीने से बाग का चक्कर काट रहा हूँ । परिणाम वही ढाक के तीन पात । गरीबी जहाँ की तहाँ कुंडली मारकर बैठी है । " - “ जो हवेली के द्वार पर गुलाब का फूल डेली रखने जाते है ? " - " क्या ? पूरा खिला हुआ रहता है । " " सब्र करो , सब्र का फल हमेशा मीठा होता है । "
पत्नी बोली और अपने काम में लग गई । जमींदार की ओर सुंदर - सी छह वर्ष की लड़की थी । वह नित्य सुबह उठती , तो दरवाजे पर एक सुंदर - सा गुलाब का फूल देख , उसे अपने केशों में खोंस लेती । दो महीने तक ऐसा ही होता रहा तो उसके पिता ने पूछा- “ एक नया फूल रोज कहाँ से मिलता है ? " हवेली के दरवाजे पर । " - " बहाँ कौन रखता है ? " " पता नहीं । " - नन्ही गुड़िया - सी लड़की ने उत्तर दिया । जमींदार ने पहरा बैठाया । हरिराम पकड़ा गया ।
उसे जमींदार के पास लाया गया । उसे लगा , अब खैर नहीं । वह सूखे पत्ते की तरह कांपने लगा । जमींदार की पत्नी बोली- “ घबराओ नहीं । हम तुमसे प्रसन्न हैं । मेरी बेटी हमेशा उदास रहती थी । जब से तुम्हारा फूल मिलने लगा , उसका सारा दुःख हवा हो गया । केवल इतना बताओ , यह सब तुम नित नियम से क्यों करते हो ? " " मेरी पत्नी ने यह नियम बनाया है । "
हरिराम की जान में जान आई । " अपनी पत्नी को आज शाम हवेली में लाओ । " - जमींदार और उसकी पत्नी , दोनों ने कहा । पति - पत्नी शाम को हवेली में पहुँचे । उनकी बहुत आवभगत हुई । चलते समय जमींदार की पत्नी ने कहा- " तुम्हारे नाते हमारे हवेली में सारे खुशी लौट आई । बताओ , हम इसके बदले तुम्हरा क्या मद्द्त कर सकती हु ? " - " हम गरीब बदले की बात कैसे करेंगे ?
आपकी बेटी और आपकी खुशी में ही हमारी खुशी है । हमें अब चलने का आदेश दीजिए । " भी चली जाएगी । " " ठीक है , तुम चलो । अब तुम्हारी जमींदार की पत्नी ने कहा । हरिराम की पत्नी को नए कपड़ों और सोने के आभूषणों से लादकर पालकी पर भेजा गया । हरिराम को ढेर सारी अशफियाँ देकर घोड़े पर सवार करवाकर विदा किया ।
घर आकर हरिराम ने पत्नी का लाख - लाख शुक्र किया । पत्नी मुस्कराकर बोली- " जो लोग सज्जनों की बात मानते हैं , सुखी होते हैं । जाकर मंदिर के साधु जी को प्रणाम करो । मंत्र तो उनके मटके में ही दिया था , मैंने केवल बुद्धि दिया था । " यह सुनकर हरिराम जी भी मुसकराने लागे । उसके बाद उनके पैर फिर मंदिर की तरफ बढ़ जाते है वह मंदिर में बाबा के शरण में पहुंच जाते है ।