बावड़ी भूत की कहानी | history stories

 

भूतों की कहानियां
भूत और चुड़ैल की कहानी

भूत - बावड़ी गौपुर के ठाकुर गोपालसिंह न्याय के लिए प्रसिद्ध थे । प्रजा को वह पुत्रवत प्यार देते थे , किन्तु उनका छोटा भाई भभूतसिंह बहुत क्रूर स्वभाव का था । न जाने कब और किस बात पर उसे क्रोध आ जाए , कोई नहीं जान सकता था । गाँव के लोग उससे बहुत डरते थे । 

ठाकुर ने उसे जमींदारी की देखभाल का काम सौंप रखा था । जहाँ गौपुर की सीमा प्रारम्भ होती थी , वहीं पर ठाकुर ने सहगीरों के पीने के लिए एक खूबसूरत बावड़ी बनवाने का निश्चय किया । बावड़ी चालीस - पचास हाथ गहरी खुद गई , तब भी उसमें पानी नहीं आया । 

एक दिन भयानक दुर्घटना घटी । बावड़ी की एक दीवार का कुछ हिस्सा ढह गया । दो मजदूर दबकर मर गए । तबसे बावड़ी अधूरी ही छोड़ दी गई । उस बावड़ी को अपशकुनी मान , उसके बारे में कई अनोखी बातें गाँव में फैल गई । उसी गाँव में रहते थे पंडित रामधन । वह ठाकुर के विश्वासपात्र और सलाहकार थे । 

एक दिन वह अपनी घोड़ी पर बैठकर किसी गाँव में पूजा - पाठ करने गए तो वापस लौटकर नहीं आए । कई दिन हो गए । ठाकुर तक बात पहुँची । खूब खोज - बीन कराई गई । कुछ पता नहीं चला । दसवें दिन उनकी जूतियाँ और पगड़ी उस बावड़ी की सीढ़ी पर पड़ी पाई गई । बावड़ी की सीढ़ियों पर घोड़ी भी मरी हुई मिली । उनके इकलौते बेटे ने सिर पीट लिया । 

एक सुबह भभूतसिंह उस बावड़ी के पास मूर्छित पाया गया । जमींदार के आदमी उसे उठाकर लाए । उसने बताया- ' सुबह घूमने निकला । बावड़ी की ओर से किसी के चीखने - चिल्लाने की आवाजें सुनाई दीं । मैं बावड़ी के पास पहुँचा , तो वहाँ कोई नहीं था । 

भीतर झांककर देखा , तो अंदर से आग की लपटें निकलने लगीं । घोड़े को मोड़ा , मगर वह अड़ गया । सामने आँख उठाई , तो देखता क्या हूँ , दो भूतों ने मेरा रास्ता रोक रखा है । उनके सिर पर बकरे की तरह के सींग थे । पूरा शरीर रीछ की तरह बालों से ढका हुआ था । 

उन्होंने मुझे एक ही झटके में घोड़े से नीचे खींच लिया । फिर क्या हुआ , मुझे मालूम नहीं । "यह सुनकर गौपुर ही क्या , आसपास के गाँवों में भी भूत - बावड़ी का भय फैल गया । इस घटना को दस दिन भी नहीं बीते , अचानक ठाकुर गोपालसिंह भी लापता हो गए । 

तीसरे दिन उनका घोड़ा बावड़ी के पास मरा पाया गया । ठाकुर गोपालसिंह के कोई संतान नहीं थी । अब भभूतसिंह को ही ठाकुर के पद पर सुशोभित कर दिया गया । उसके जमींदार बनते ही गाँव पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा । 

एक ओर भूत - बावड़ी का आतंक उन्हें रात भर सोने नहीं देता , तो दूसरी ओर भभूतसिंह के आतंक से गाँव वाले परेशान थे । मगर पंडित जी के बेटे सूरज को प्रेत में विश्वास नहीं था । एक दिन सूरज मुँह अँधेरे बिना किसी को कुछ बताए , भूत - बावड़ी के पास पहुँचा । 

वह सीढ़ियाँ उतरने लगा । एक सीढ़ी , दो सीढ़ी , तीन सीढ़ी , वह सीढ़ियाँ उतरता ही चला गया , मगर भूत नहीं आया । आगे अँधेरा था । सीढ़ियाँ भी उसे साफ नहीं दीख रही थी । तभी उसे ठोकर लगी । वह लड़खड़ाकर दीवार से टकराया । दीवार पर लोहे के कड़े जैसे कोई चीज उसके हाथ में आ गई । 

उसने कसकर पकड़ लिया । वह कड़ा एक दरवाजे का था । खट की आवाज हुई और वह एक रास्ता बन गया । हल्का - सा उजाला भी दीख पड़ा । सामने एक सुरंग थी । उसको बड़ा आश्चर्य हुआ । वह सुरंग के रास्ते आगे बढ़ा । आगे चलकर उसे एक ओर दरवाजा दीखा । उसने उसे धक्का दिया , तो वह खुल गया । 

भीतर दो मशालें जल रही थीं । मशालों की रोशनी में एक आदमी दीखा , जिसके हाथ - पैर रस्सी से बँधे थे । उसे भूत समझ , वह चीखने ही वाला था कि उस आदमी को पहचान लिया । वह ठाकुर गोपालसिंह थे । वह बोला- " क्या आप ठाकुर साहब ही हैं या कोई भूत ? " ठाकुर ने आखें उठाई । लाल - लाल आँखें । दाढ़ी बढ़ी हुई । वैसी ही बड़ी - बड़ी मूंछें । वह बोले- " कौन ! अरे , तिल - तिल कर क्यों मारता है भभूत ! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है दुष्ट ! मुझे किसी भी खजाने का पता नहीं मालूम । 

 सूरज पूरी बात समझ में आ जाता है । कहा ठाकुर साहब ! मैं पंडित रामधन का बेटा सूरज हूँ । भभूतसिंह नहीं हूँ । आप इस हालत में ! विश्वास ही नहीं होता कि आप जिंदा हैं । " ठाकुर ने कुछ क्षण उसे घूरकर देखा । पहचानकर बोले- " अरे , बेटा सूरज ! तुझे भी उस राक्षस ने पकड़ लिया क्या ? 

" सूरज ने बताया कि वह तो खुद भूतों के पास मरने के लिए आया था , मगर यहाँ तो बात ही कुछ दूसरी है । ठाकुर ने बताया- " यहाँ भूत-प्रेत कुछ नहीं है । भभूतसिंह के आदमियों की ही करामात है सब । ठकुराई के लोभ में आकर उसने मुझे यहाँ कैद किया है । 

अब तक खजाने का पता पूछने के लिए ही मुझे जिंदा रख रखा है । शायद पंडित रामधन को भी खजाने का पता पूछने के लिए ही पकड़ा होगा । अभी दोपहर तक यहाँ कोई नहीं आता । दोपहरी बाद उसके आदमी खाना लेकर आते हैं ।  

सूरज ने जल्दी से जल्दी उनके हाथ पाँव  खोले । कहा  ठाकुर साहब ! भगवान ने चाहा , तो हम बच निकलेंगे । यहाँ से भाग चलो । " ठाकुर ने बताया कि इस बावड़ी में कुछ नीचे शायद एक और भी सुरंग है , जहाँ लोग कैद होंगे । यहाँ से आगे थोड़ी दूर एक नदी बहती है । 

उधर से ही भभूतसिंह के आदमी आते हैं । सूरज ने कहा- " पहले आप तो बाहर निकलिए । दूसरों को छुड़वाने का भी कोई उपाय कर सकेंगे । " वे वहाँ से बाहर आए । सामने नदी बह रही थी । 

तैरकर दूसरे किनारे पर पहुँचे । पास ही कोशीथल गाँव था । वहाँ के ठाकुर उम्मेदसिंह को सारी स्थिति बताकर मदद माँगी । उम्मेदसिंह ने बीस पच्चीस आदमी कैदी आदमियों को छुड़वाने के लिए भेज दिए । कुछ लठैतों को साथ लेकर , ठाकुर गोपालसिंह व सूरज के साथ गौपुर गाँव की ओर दौड़ पड़े । 

भभूतसिंह अपने साथियों के साथ बैठा , गप्पें हाँक रहा था । ठाकुर ने उसे आ घेरा । ठाकुर को जीवित देख , वह चौका । ठाकुर गोपालसिंह तलवार की नोंक उसकी छाती से लगाकर गरजे- " तू भभूत नहीं , जिंदा भूत है । ले दुष्ट , तेरी काली करतूतें अब छिप नहीं सकेंगी ।

 " उन्होंने हुक्म दिया- " गिरफ्तार कर लो इसे । " बावड़ी से कई आदमियों को कैद से छुड़ाया गया । पंडित रामधन भी उनमें से थे । भभूतसिंह का मुँह काला करके सारे गाँव में घुमाया गया । फिर जमींदारी से बाहर निकाल दिया गया । वह जहाँ भी जाता , लोग उसे धिक्कारते और भगा देते । वह भटकता - भटकता कहाँ गया , कुछ पता नहीं चला ।

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