भारवि रामायण क्या है | Man's biggest enemy is ego

भारवि रामायण क्या है


एक समय मिथिला नगरी में निमि वंश के राजा का शासन था । राजा नेक , सदाचारी और प्रजावात्सल्य थे । दरबार में विद्वानों का में जमघट लगा रहता था । शास्त्रार्थ रोज चलता था । दरबार के विद्वानों में पंडित श्रीधर का बड़ा नाम था । वे संस्कृत के विद्वान थे और शास्त्रार्थ करने में सबसे आगे थे । 

श्रीधर पंडित जी स्वभाव के नम्र और मृदुभाषी थे । मन में छोटे - बड़े का भेदभाव नहीं था । श्रीधर जी का आदर सभी लोग करते थे । इनका परिवार बहुत छोटा था । घर में पत्नी और पुत्र बस दो ही प्राणी थे । पत्नी सुन्दर , सुशील और पति की आज्ञाकारिणी थी । पुत्र भी सेहतमंद और हंसमुख था । नाम भारवि था । 

जब वह पाँच साल का हुआ तो पंडित जी उसे संस्कृत पढ़ाने लगे । पुत्र को इन्होंने अपनी सारी विद्या सिखला दी । भारवि भी अपने पिता के समान ही शास्त्रार्थ करने लगा । बड़े होकर भारवि की कीर्ति पिता से भी अधिक फैली । वह राजदरबार में भी बुलाया जाने लगा और भी होने लगा । 

पुरस्कृत मिथिला नरेश उसकी प्रशंसा करते हुए थकते न थे । दरबार के अन्य विद्वान तो शास्त्रार्थ करने में भारवि के समक्ष ठहर ही न पाते थे । सभी उसका लोहा मानने लगे । पुत्र को सब प्रकार से योग्य देखकर श्रीधर पांडित जी ने उसे ही प्रधान पंडित के पद पर नियुक्त कर दिया और खुद अवकाश ग्रहण करके घर में रहने लगे । 

वे वृद्ध भी हो चुके थे । घर में आराम से रहना अच्छा लगता था । किन्तु सम्राट से आदर पाकर भारवि के मन में अहंकार समाने लगा । वह सोचता कि मुझ सा पंडित - ज्ञानी तो राजदरबार में एक भी नहीं , सभी अधकचरा ज्ञान रखने वाले हैं । ऐसा सोचकर भारवि दरबार के अन्य विद्वानों को , जो मन में आता सो बोल देता , कभी - कभी तो उन्हें मूर्ख भी कह देता जिससे विद्वानों का मुँह अपमान के कारण लाल हो उठता । 

लोग मिथिला नरेश से शिकायत करना चाहते थे पर हिम्मत न पड़ती थी । राजा का क्या भरोसा , वे मनमौजी होते हैं । कहीं दरबार से निकाल दिया तो ? दिन बीतते गये । भारवि का अहंकार भी बढ़ता गया । खबर श्रीधर पंडितजी के कानों में भी पड़ी । वे चिंतित हो गये । सोचा कि विद्या का प्रथम सोपान तो विनयशील रहना है फिर भारवि इतना अहंकारी कैसे हो गया । 

उन्होंने पुत्र को समझाया कि लोगों के साथ सद्व्यवहार रखो पर भारवि के कानों में जूं तक न रेंगी , उलटे उसने पिता को भी झिड़क दिया कि मूर्खों को मूर्ख न कहूँ तो क्या ज्ञानी पंडित कहूँ ? पुत्र की दलील सुनकर श्रीधर पंडितजी चुप रह गये किन्तु मन में निश्चय कर लिया कि इस घमंडी का घमंट मैं तोहुँगा । 

फिर एक दिन मौका देखकर उन्होंने पुत्र को चुनौती दे दी , बोले- " मुझे शास्त्रार्थ में हराओ तभी तुम्हें विद्वान मानूँगा । " “ अच्छी बात है । " भारवि ने चुनौती स्वीकार कर ली और मिथिला नरेश से मिलकर शास्त्रार्थ के लिये दिन - समय निश्चित कर लिया । निर्णायक भी सम्राट ही बने । शास्त्रार्थ शुरू हुआ । पंडितों की अपार भीड़ दर्शक बनी बैठी थी । 

भारवि ने पिता से कई प्रश्न पूछे जिनके उत्तर उन्होंने सरलतापूर्वक दे दिये लेकिन जब श्रीधर जी प्रश्न करने लगे तो भारवि की बोलती बंद हो गई । वह बगल में झांकने लगा । श्रीधर जी हँस पड़े और भारवि को मूर्ख कहकर घर लौट आये । मूर्ख शब्द सुनकर भारवि के क्रोध का ठिकाना न रहा । 

वह पिता का दुश्मन बन गया । भरी सभा में अपमान होना डूब मरने जैसी बात थी । भारवि वापस घर न लौटा और जंगल में विराने में जा बैठा । वहाँ जंगल में एक डाकू गिरोह रहता था । डाकू के सरदार और भारवि के बीच मैत्री हो गयी । अब भारवि जंगल में ही रहने लगा । 

पुत्र के घर न लौटने से माता चिंतित थी । वह श्रीधर पंडित जी पुत्र के न आने का कारण पूछने लगीं । पंडितजी ने सारा वृत्तांत बता दिया और स्वयं भी अफसोस जाहिर करने लगे । वर्षों का समय निकल गया किन्तु भारवि न लौटा । पुत्र के न लौटने से पंडित जी एवं इनकी पत्नी दुखी रहने लगे ।  

जंगल में डाकुओं के साथ रहकर भारवि खूंखार बन गया । उसके मन में पिता के लिये खोट तो था ही । एक रात उनकी हत्या के लिये वह घर में घुस आया । हाथ में नंगी तलवार थी । रात्रि का गहन अंधकार सर्वत्र फैला था । श्रीधर जी अब तक जाग रहे थे और पत्नी बिछावन में पड़ी सिसक रही थी । 

पंडित जी पत्नी को समझाने लगे कि हमारा भारवि जहाँ भी होगा , वहाँ सकुशल होगा क्योंकि मेरा आशीर्वाद सदा उसके साथ है । " लेकिन आपने उसे चुनौती दी ही क्यों थी ? " पत्नी बोली । श्रीधर जी रुधे कंठ से बोले- " भारवि अहंकारी हो गया था । उसे सुमार्ग पर लाना बहुत आवश्यक था वरना वह किसी दिन सम्राट के कोप का शिकार हो जाता । 

आदमी का सबसे बड़ा शत्रु अहंकार है , जिसके साथ सत्यानाश का बीज अपने आप आ जाता है । " पिता की बातों को भारवि ने सुन लिया । वह लाज से पानी पानी हो गया और उसके हाथ से तलवार छूट गयी । छन्त्र की आवाज सुनकर पंडितजी चौंक पड़े और चोर को ढूँढ़ने लगे । 

भारवि सहमा खड़ा था । पंडित जी की आँखें खुशी से भीग गयीं । उन्होंने पुत्र को गले लगाया और कुशल - क्षेम पूछने लगे । भारवि के हृदय से अहंकार बहुत दूर भाग चुका था । आगे चलकर , भारवि ने कई ग्रंथों की रचना की , जिनमें ' भारवि रामायण ' भी एक है ।

और नया पुराने