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How do you start a family story? |
महेश उस आदमी से नाराज था जो अपने को उनका सुनील चाचा बता रहा था । ' तब कहाँ थे सुनील चाचा , जब डेढ़ वर्ष पहले पिता जी हमें सदा के लिए छोड़कर चले गए थे ? तब तो खत लिखने और फोन करने के बाद भी नहीं आए थे ?
महेश यही सोच - सोचकर परेशान हो रहा था । उसके पिता गोविंदनारायण सरकारी दफ्तर में चपरासी थे ईमानदार और मेहनती । घर में थी माँ तारा , महेश और मीनू । महेश अब पंद्रह का हो चला था और मीनू दस की । गोविंदनारायण की मौत के बाद घर एकदम टूट गया था । ले - देकर एक सुनील था , गोविंदनारायण का छोटा भाई , जो बंबई में रहता था । आता नहीं था
सोलह साल पहले घर छोड़कर बंबई चला गया था , शायद बड़ा आदमी बनने के लिए । गोविंदनारायण की मृत्यु के बाद परिवार बेसहारा हो गया था । तारा ने आसपास के घरों में काम करना शुरू कर दिया था
महेश को लगा था , अब उसे भी घर चलाने में माँ का हाथ बँटाना चाहिए । उसने माँ के सामने पढ़ाई छोड़कर कुछ काम करने की बात कही , तो वह झट बोली- नहीं बेटा , तुम पढ़ाई छोड़ने जैसे कोई बात मत करना ! क्या तू नहीं चाहता कि तेरे पिता की आत्मा शांति से रहे । उन्हें कितनी आशाएँ थीं सुझसे । वही पूरी करने की कोशिश कर रही हु । बस मैं और कुछ नहीं चाहती ।
आज नहीं तो कल , मुझे उनकी जगह नौकरी मिल ही जाएगी । " गोविंदनारायण के अफसर राने साहब ने तारा को भरोसा दिलाया था नौकरी मिलने का लेकिन। उन्हें सरकारी मकान खाली करना था । रानी साहब ने कहा था- " अगर आप चाहें तो मेरे बंगले के सवेंट क्वार्टर में रहें । नौकरी के साथ - साथ आपको सरकारी मकान भी मिल जाएगा ।
महेश अब इतना छोटा नहीं रह गया था कि सच्चाई न समझ पाता । वह जानता था कि घर में कितनी परेशानियाँ थीं , जो धीरे धीरे बढ़ रही थीं । मीनू ने कई बार माँ की आँखों में छलकने वाले आँसुओं के बारे में उसे बताया था । वह दुःख अपने अंदर रखना चाहती थीं ताकि बच्चों के मन पर कोई छाया न पड़े ।
लेकिन महेश और मीनू इतने नासमझ न थे कि माँ का दुःख न समझते । एक दिन मीनू ने महेश से कहा- “ भैया , राने साहब का तबादला हो गया है । अब हमें नया घर ढूँढ़ना होगा । " , परन्तु माता जी ने यह बात क्यों छुपाया मुझ कुछ भी नहीं कहा ! " " मुझसे भी नहीं कहा । माँ हमसे बहुत - सी बातें छिपाना चाहती है । सोचती है , हम पढ़ाई में ध्यान नहीं लगायेंगे ।
भैया , हमें सुनील चाचा को खत लिखना चाहिए । आखिर वह हमारे चाचा हैं । हो सकता है , पहला खत उन्हें न मिला हो । " " ठीक है , लेकिन जिन चाचा को हमने देखा नहीं , उनके मन में हमारे लिए प्यार कहाँ होगा । " -महेश ने कहा । फिर भी उसने पत्र लिख दिया और कुछ दिन बाद ही सुनील चाचा आ गए ।
सुनील चाचा महेश को वैसे ही लगे जैसा उसने सोचा था । वह स्कूल से आया तो घर में बैठे थे । उसको देखते ही बोल पड़े की - " इतनी देर से किधर घूम रहा था ? " तभी जाकर मीनू ने बात संभाली- " चाचाजी , लड़कों का स्कूल दोपहर को लगता है । भैया स्कूल से सीधा घर आता है ।
" महेश ने सुनील चाचा को चाय बनाकर दी । तब तक माँ आ गई । उसने महेश से दीवाली के दीयों के लिए तेल लाने को कहा । दुकान पर महेश को पिता के साथी रोहित राजभर जी मिले- " सुना है , तुम्हारे चाचा आए हैं । क्या उनके साथ बंबई जाओगे तुम लोग ? " " नहीं अंकल जी ! " - महेश ने कहा । तभी दुकान वाले लालाजी बोले- " इसका चाचा तो हीरो जैसा दिखता है । पता नहीं , बंबई में क्या करता है ? ऐसा तो नहीं कि भाई की सरकारी नौकरी लेने के इरादे से आया हो ।
चमन के भाई ने भी तो ऐसा ही किया था । " " नहीं लाला जी , गोविंदनारायण की नौकरी तो तारा बहन को ही मिलेगी । बस , कुछ ही दिन की बात है । " - रोहित राजभर जी बोले । महेश के दिल पर जैसे साँप लोट गया । ' अच्छा , तो इतने वर्षों बाद इसलिए आए हैं सुनील चाचा । हमारी मदद करने के बजाए , आखिरी सहारा भी छीनने आए हैं ।
यही सोचता हुआ महेश घर में घुसा । घर में चाचा अखबार पढ़ रहे थे , मीनू होमवर्क कर रही थी । माँ दीवाली के लिए थोड़ी - सी मिठाई बना रही थी । स्कूल में दीवाली की चार की छुट्टी थी । महेश माँ से कुछ पूछना चाहता था लेकिन .... दोपहर को सुनील चाचा के बाजार जाने के बाद महेश ने माँ से पूछा- " माँ , सुनील चाचा किसलिए आए हैं ? यहीं रहेंगे या हमें अपने साथ ले जायेंगे ?
दुकान पर जो कुछ सुना था , वह माँ को बताने का साहस नहीं था उसमे । " कुछ बताया नहीं तुम्हारे चाचा ने । पहले क्यों नहीं आया , क्या चाहता है यह सब मैं नहीं पूँहूँगी । यह तो उसके भाई का घर है । उसे पूरा अधिकार है जब चाहें यहाँ आने का , रहने का । इस बार दीवाली के शुभ अवसर पर आया है । देखो , तुम दोनों उससे कोई ऐसी - वैसी बात न कह देना ।
तुम्हारे पिताजी बिना हम तीनों कितना अकेला महसूस कर रहे हैं । फिर भी हम तीन हैं , लेकिन सुनील का वहाँ कौन है ? उसे देखकर लगा था जैसे हमें कुछ देने आया है , पर अब सोचती हूँ शायद उसने हमेशा के लिए खो दिया है कुछ ..... माँ की बात महेश की समझ में नहीं आ रही थी । पर वह माँ का मन नहीं दुखाना चाहता था , इसलिए चुप रह गया ।
पिता की मृत्यु के बाद महेश और मीनू ने पहली दीवाली मनाई । दीपक जलाए , कुछ राकेट छोड़े और दीवाली के दिन गुजर गए । माँ बंगले पर काम के लिए चली गई । तभी सुनील चाचा अपना बैग लगाने लगे । “ महेश .... " सुनील ने कहा- " जब तक तुम स्कूल से आओगे , उसके पहले मैं चला जाऊँगा । " " हाँ चाचा तबतक । " - महेश ने कसके चिल्ला उठा । उसके समझ में नहीं आ रहा था की - ' आखिर चाचू जो बोलना चाह रहे हैं , बोलते क्यों नहीं ?
तुम तो पिताजी की नौकरी खुद पाने की इच्छा से आए थे । ' " बेटे , पत्र डालते रहना । मैं जानता हूँ जवाब नहीं दे पाता बई का जीवन अलग है । " - फिर सुनील चुप हो गया । शाम को महेश स्कूल से लौटा तो मीनू ने सुनील चाचा का पत्र दिया । लिखा था
' प्रिय महेश , तुम तीनों के चेहरों पर कई प्रश्न मुझे नजर आ रहे थे , खासकर तुम्हारे चेहरे पर । तुम सोच रहे थे न कि मैं किसलिए आया हूँ ? सच कहूँ तो मैं आया था तुम लोगों पर अहसान करने के लिए । भैया के मरने पर मैं नहीं आया क्योंकि तब आने की हालत न थी । न घर था , न रुपए ।
मैं भाभी से किस मुँह से कहता कि चलो मेरे साथ इस बार यहाँ आकर देखा , तुम लोगों को मेरी दया की जरूरत नहीं । भैया का इतना अच्छा भाभी को नौकरी मिलने की संभावना , समझदार और मेहनती बच्चे । सहारा तुम्हें नहीं , मुझे चाहिए । जा रहा हूँ ,
बस , इतना याद रखना तुम्हारा एक चाचा है कहीं । -तुम्हास सुनील चाचा ' महेश चाचा का पत्र हाथ में लिए खड़ा रह गया । उसने क्या उलटा - सीधा सोचा था और सुनील चाचा ... तभी माँ अंदर आ गई । वह मुसकरा रही थी । उसने कहा- “ बेटे , तुम्हारे पिताजी की नौकरी मुझे मिल गई है ।
महेश के होठों पर हँसी आ गई , पर आँखों में आँसू थे । उसने कहा- “ मैं सुनील चाचा को तुरन्त पत्र लिखना चाहता हूँ । " माँ जैसे बिन कहे ही उसके मन की बात समझ गई । प्यार करती हुई बोली- “ तेरे चाचा वैसे नहीं हैं , जैसा तू समझ रहा था । "