झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु कैसे हुई | Rani of Jhansi in Hindi

 

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कैसे हुई थी झांसी की ‘विरंगना रानी लक्ष्मीबाई’ की शहादत विरंगना रानी लक्ष्मीबाई की शहादत कैसे हुई थी इस पर बहुत सारे मत बताये जाते हैं। रानी लक्ष्मीबाई की शहादत कैसे हुई इस पर बहुतेरे मत हैं साल 1857 में झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई ने वीरता के साथ लड़ते हुए अपनी शहादत दिया था कि उनकी वीरता देख अंग्रेज भी उनके कायल हो चुके थे।


भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में झांसी की विरंगना महारानी लक्ष्मीबाई की वीरता को ख़ास स्थान मिला हुआ है। 18 जून को वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस के रूप में सम्पूर्ण देश उनकी पुण्यतिथि पर उनको याद किया करती है। लक्ष्मीबाई के जीवन की लास्ट लड़ाई में वीरांगना ने ऐसी वीरता दिखाई कि अंग्रेज भी उनके कायल हो चुके थे । उनकी शहादत को लेकर अनेको मत बताये जाते हैं जिसमें उनकी मृत्यु के तिथि से लेकर दिन तक मदभेद बताये जाते हैं। परन्तु  इस बात को लेकर किसी भी प्रकार के विवाद नहीं खड़ा हुआ हैं कि लक्ष्मीबाई ने किस वीरता से सम्पूर्ण अंग्रेजों के दांत खट्टे किए हुए थे और अंतिम सांसो तक वे लड़ती रह गयी थी ।


वारिस मानने से इनकार


उस वक्त के गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी के नीतिओ के  अनुशार ईस्ट इंडिया कंपनी ने रानी लक्ष्मीबाई के गोद लिए हुए बच्चे को वारिस मानने से बिलकुल इनकार कर दिया था  । रानी लक्ष्मीबाई ने भी इसको मानने से इनकार करते हुए अंग्रेजों को दो टूक जवाब दे दिया था कि वे अपनी झांसी को नहीं सौपेंगी । अब तो अंग्रेजों और रानी लक्ष्मीबाई के बीच युद्ध निश्चित हो जाता है जिसके लिए रानी भी तैयार हो गयी । रानी के विद्रोह को समाप्त करने के लिए कैप्टन ह्यूरोज को जिम्मा सौप दिया गया था।


पहले झांसी छोड़ने को मजबूर हुईं रानी


23 मार्च 1858 को अंग्रेजों ने झांसी की रानी पर हमला कर दिया और 3 अप्रैल तक जबरदस्त घमाशान  युद्ध चला जिसमें महारानी को तात्या टोपे ने साथ दिया । इस नाते से अंग्रेजों को झांसी के अंदर घुसने 13 दिन तक रोक के रखा उनको घुसने नहीं दिया । आखिकार 4 अप्रैल को अंग्रेज की सम्पूर्ण सेना झांसी के भीतर घुस जाती है । इस कारण बस महारानी को झांसी छोड़ना पड़ गया था ।


फिर ग्वालियर में जमा की ताकत


बताया यह भी जाता है कि 24 घंटे में करीबन 93 मील की दूरी तय करने के पश्चात रानी लक्ष्मी बाई काल्पी में  पहुंच गयी जहां पर उनकी मुलाकात नाना साहेब पेशवा, राव साहब एवं तात्या टोपे से हो गई । 30 मई को ये सभी बागी ग्वालियर पहुंच गए जहां पर राजा जयाजीराव सिंधिया अंग्रेजों के साथ हो गए थे लेकिन बात यह भी थी की उसके पहले उसकी सम्पूर्ण फौज बागियों के साथ हो चुकी थी । कुछ ही समय बाद अंग्रेजो की पूरी फौज ग्वालियर पहुंच जाती है जहां घमाशान युद्ध हुआ।


17 जून को निर्णायक युद्ध


17 जून को विरंगना रानी लक्ष्मीबाई का लास्ट युद्ध शुरू हुआ। परन्तु उनकी मृत्यु के भी अलग-अलग भेद हैं, जिसमे लॉर्ड केनिंग की एक रिपोर्ट सर्वाधिक विश्वसनीय मानी गयी है। ह्यूरोज की घेराबंदी और संसाधनों की कमी के कारण वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई घिर गईं होती है । ह्यूरोज ने एक पत्र लिख कर लक्ष्मीबाई से एक बार स्वयं से अपने आप को समर्पण करने को बोला। परन्तु रानी को यह ना मंजूर था उन्होंने अपनी सेना के साथ किला छोड़कर मैदान में उतर जाती है। उनका इरादा यह था की एक तरफ से तात्या की सेना आये तो दूसरी ओर से रानी लक्ष्मी के ब्रिगेडियर स्मिथ की टुकड़ी को घेरेने का हुआ था। बदकिस्मती से तात्यां वक्त पर नहीं पहुंच पाए और वीरांगनारानी अकेली पड़ गईं थी ।


जख्मों के साथ लड़ती रहीं रानी


कैनिंग की रिपोर्ट और अनेको सूत्रों के अनुशार यह भी  बताया जाता है कि रानी को लड़ते समय गोली लगी हुयी थी जिसके बाद उन्होंने विश्वस्त सिपाहियों के साथ में  ग्वालियर शहर के रामबाग तिराहे से नौगजा सड़क पर आगे की तरफ बढ़ते हुए स्वर्ण रेखा नदी की ओर बढ़ती जा रही थी। नदी के किनारे रानी का घोड़ा रुक गया। होता है महारानी ने दूसरी बार नदी को पार करने का प्रयत्न किया परन्तु वह घोड़ा आगे ना बढ़ सका । गोली लगने कारण रानी का काफी खून पहले ही बह चुका था इस नाते वे वही मूर्छित-सी होने लगीं।


शहादत के  पल


इसी बीच एक अंग्रेज वहा पहुंच जाता है और अपने  तलवार से उसके सिर को एक आंख समेत अलग कर देता है उसके बाद रानी शहीद हो गईं। यह भी बताया जाता है कि शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने साथियों से बोला कि उनका शरीर अंग्रेज उठाकर ना ले जाये । लक्ष्मीबाई के शरीर को बाबा गंगादास की शाला के साधु, झांसी की सेना की मदद की और उन्हें अपने शाला में ले आए जहां पर तुरंत उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया था । रानी लक्ष्मीबाई की वीरता देख के स्वयं ह्यूरोज ने भी लक्ष्मीबाई की तारीफ करने से नहीं अछूते हो पाए थे ।


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