सुबह के धुंधलके में दो - तीन गाँव के लोगो ने देखा , नदी की तरफ से एक बुढ़िया कमर झुकाए , कंधे पर एक कांटेदार सूखा झाड़ रखे गाँव के भीतर चली आ रही है । धीरे - धीरे चलती बुढ़िया चौपाल को पार कर आगे बढ़ गई । बुढ़िया कुबड़ी भी नहीं थी क्योंकि जब सुस्ताने के लिए वह कमर सीधी करती थी , तो कहीं कूबड़ भी नहीं दिखाई देता था ।
बुढ़िया बहुत ही दुबली - पतली थी । सिर के सफेद बाल उलझे - उलझे थे । आँखें बहुत चमकदार । उसने सफेद साड़ी पहनी हुई थी जो कई जगह से फटी हुई थी । उम्र का कुछ अंदाजा नहीं था । चौपाल से आगे निकलकर गली के नुक्कड़ के करीब वह ठिठकी । कंधे पर से झाड़ उतारा । उसने थोड़ी - सी जगर को बहारा और फिर उसी पर बैठ गई ।
अजीब बात थी कि झाड़ पर लगे कांटे भी उसे नहीं चुभ रहे थे । सूरज की रोशनी फैल गई थी । गली के नुक्कड़ पर एक विचित्र बुढ़िया को झाड़ पर बैठे देख , गाँव के लोग वहाँ जमा हो गए । बुढ़िया से पूछताछ करने लगे , लेकिन बुढ़िया ने किसी की बात का जवाब नहीं दिया ।
वह चुप बैठी रही । हाँ , उसके होंठ जरूर फड़फड़ा रहे थे । कुछ बुदबुदा रही थी , होठों ही होठों में । लेकिन सुनाई कुछ नहीं पड़ता था । ज्यों - ज्यों दिन चढ़ता गया , पूरे गाँव में बुढ़िया के आने की खबर आग की तरह फैल गई । बच्चे - बूढ़े , जवान और महिलाओं का उसे देखने के लिए मेला -सा लग गया
लेकिन कुछ देर में खड़े लोग चले गए । जहाँ बुढ़िया बैठी थी , उससे करीब दस कदम के फासले पर एक टूटा - फूटा मकान था । वहाँ कमला अपने आठ - दस बरस के बेटे लखन के साथ रहती थी । कमला अपना तथा अपने बेटे का पेट पालने के लिए सुबह ही जंगल से घास लाने चली जाती ।
अपनी तथा बेटे की चार रोटियाँ सबेरे ही सेककर रख जाती । दोपहर बाद घास का गट्ठर सिर पर लादकर वह लौटती । उसे बेचकर घर का सामान खरीदती । लखन सबेरे से ही अपने दरवाजे पर बैठा उस बुढ़िया को देखे जा रहा था ।
उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी । दोपहर हो गई और उसने देखा , किसी भी गाँव वाले ने बुढ़िया को रोटी पानी के लिए नहीं पूछ । उससे रहा नहीं गया । वह घर के अंदर गया । एक छोटी - सी थाली में दो रोटियाँ रखीं । उसे एक कपड़े से ढका और एक लोटा पानी का भरकर वह बुढ़िया के पास पहुँच गया ।
लखन ने कहा- " बुढ़िया माता , आपको भूख लगी होगी और प्यास भी । लो , खाना खा लो । " बुढ़िया ने लखन की आवाज सुनकर अपनी आँखें आधी खोली और बोली- " लखन बेटे , मुझे पहले पानी पिलाओ । " लखन बुढ़िया के मुँह से अपना नाम सुनकर भौचक्का रह गया । मेरा नाम इसे किसने बताया ।
बुढ़िया फिर बोली- " लखन बेटे , मुझे बड़ी प्यास लगी है । " लखन ने बुढ़िया के हाथ में लोटा देना चाहा , मगर बुढ़िया बोली- “ नहीं बेटे , तुम अपने हाथ से मुझे पानी पिलाओ । " लखन के हाथ से बुढ़िया पानी का पूरा लोटा पी गई । लखन ने तब रोटी की थाली उसे थमाई । बुढ़िया ने कपड़ा हटाकर थाली में से दोनों रोटियाँ उठाई और अपने पल्लू से बाँध लीं ।
फिर उसी तरह कपड़ा ढककर थाली लखन को वापस देदी और कहा- " जाओ । " लखन जब घर में घुसा तो उसकी माँ कमला जंगल से आ चुकी थी । आज वह कुछ जल्दी आ गई थी । लखन के हाथ में कपड़े से ढकी थाली देखकर माँ ने पूछा- " तुम कहाँ गए हुए थे ? " लखन ने माँ को पूरी बात बता दी ।
माँ ने थाली से कपड़ा हटाया तो देखा , थाली में दोनों रोटियाँ रखी हैं और एक - एक रोटी पर पांच - पाँच चम - मचम चमचमाती गिनियाँ रखी हैं । माँ देखकर हैरान रह गई । उसने पूछा- " तुम तो कह रहे थे कि दोनों रोटियाँ बुढ़िया ने पल्लू से बाँध ली थी पर ये तो ज्यों की त्यों रखी हैं ? "
लखन ने बताया- " मँ , मेरे सामने उसने दोनों रोटी पल्लू से बाँधी थीं । " लखन की माँ सुनकर हैरान रह गई । उसने लखन के साथ जाकर बुढ़िया के पैर छुए तो बुढ़िया हँस पड़ी । दिन ढल गया । कुछ ही देर में शाम छाने लगी । लेकिन बुढिया टस से मस नहीं हो रही थी । न उठती , न चलती , न किसी से कुछ बोलती ।
इसी तरह रात हो गई । लोग अभी सोए भी नहीं थे । उन्होंने बुढ़िया का चिल्लाना सुना । गाँववाले घरों से बाहर निकल आए । सबको आश्चर्य था कि एक शब्द भी न बोलने वाली यह बुढ़िया अचानक कैसे चिल्लाने लगी । कोई दुर्घटना हो गई इसके साथ या किसी ने अनजाने में इसे कोई पीड़ा पहुँचा दी है ।
बुढ़िया जाने किसे डाट रही थी- " तू यहाँ आई कैसे ? तेरी यह मजाल । जब मैं यहाँ बैठी हुई हूँ तो तेरी यहाँ आने की हिम्मत कैसे हुई ? क्या कहा , तुझे खबर नहीं थी । जानती हूं , जानती हूँ , तू महामारी है । मुझे बताने की जरूरत नहीं । तू चाहती है , मेरे इस गाँव के बच्चों - बड़ों और औरतों को तू अपनी लपेट में लेकर उन्हें खत्म कर दे । मैं ऐसा नहीं होने दूंगी । "
इतना कहते - कहते बुड़िया उठकर सीधे खड़ी हो गई और झाड़ को उठाकर अपने सामने जमीन पर तीन - चार बार जोर से दे मारा । लोगों ने सिर्फ हाय - हाय को आवाज तो सुनी , मगर हाय - हाय करने वाला दिखाई नहीं दिया । बुढ़िया ने फिर झाड़ को वहीं रखा और फिर उसी तरह मोन होकर बैठ गई ।
हाँ , उस समय उसके होठों पर हल्की - सी मुसकराहट जरूर दिखाई दे रही थी । गाँव वालों को नींद नहीं आ रही थी- ' हे भगवान यह क्या बला है । कोई देवी है , जादूगरनी है या सिद्धि वाली औरत है । "
सुबह हुई । लोग दिशा - मैदान से लौट रहे थे कि उन्होंने देखा , एक बघेरा गाँव में घुस रहा है । लोगों में आतंक छा गया । खाली हाथ लोग घरों की तरफ लाठियाँ और हथियार उठाने भागे । वह आगे बढ़ता जा रहा था । ढोल बजने लगे , गाँव में शोर मच गया ।
बुढ़िया ने आँखें खोलकर देखा , बघेरा उसके बिल्कुल करीब आ गया था । वह एक बार फिर मुसकराई और खड़ी होकर झपाटे के साथ झाड़ उठाया । दो कदम आगे बढ़कर बघेरे के सिर पर दे मारा । झाड़ लगते ही बघेरा वहीं जमीन पर पसर गया । लोगों ने देखा कि उसके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं ।
अब सारा गाँव बुढ़िया के सामने जमा हो गया । सब बुढ़िया माता की जय - जयकार करने लगे । श्रद्धा और आदर से सबकी आँखें मुँद गई । थोड़ी देर बाद जब सबने आँखें खोली तो बुढ़िया का कहीं पता नहीं था । जाने कहाँ गायब हो गई । लोग जाने क्या - क्या सोच रहे थे ।