जादुई घड़ा वाली कहानी | jadui ghada ki kahani

 

Jaadui handi

बहुत पुरानी  बात है । धूलकांत नामक नगर था । उसमें उदारचरित नाम का एक राजभर जी रहते थे । उसके पास धन - सम्पत्ति नहीं थी । मेहनत - मजदूरी करके अपना काम चलाता था । निर्धन होने के कारण जीवन बड़ी कठिनाई से बीत रही थी । फिर भी पति - पत्नी घबराते नहीं थे । आए - गए का आदर - सत्कार करना अपना कर्तव्य समझते थे । 

एक दिन उनके घर कोई संन्यासी आया । उन्होंने संन्यासी की खूब सेवा की । जाते समय प्रसन्न हो , संन्यासी उन्हें एक घड़ा दे गया उस घड़े की विशेषता यह थी वह हर समय पानी से भरा रहता था । जितना जी चाहे , पानी उड़ेलो , परन्तु घड़ा खाली नहीं होता । न ही उसे पानी भरने के लिए किसी कुएँ या तालाब में डुबोना पड़ता था । 

परन्तु संन्यासी ने एक शर्त लगाई थी- " जितना जी चाहे , परोपकार कमाओ । इस घड़े से कभी लाभ मत कमाना । नहीं तो यह फूट जाएगा । " उदारचित ने यही बात गाँठ बाँध ली थी । नगर का एक दुकानदार अक्सर उसे समझाता- " यह घड़ा तेरे लिए व्यर्थ है । सौ पचास ले ले और घड़ा मुझे दे दे । मैं इसका जल बेचकर धन कमाऊँगा । तुझे तो व्यापार आता - जाता नहीं 

 rajbhar उसकी बात सुनकर टाल जाता । गम्भीर होकर कहता " संन्यासी जी का आदेश है । इस जल का मोल नहीं कमाना चाहिए । परोपकार करना चाहिए । " " परोपकार कमाते - कमाते तो तेरे प्राण निकल जायेंगे । मिलेगा कुछ भी नहीं । यदि लाभ नहीं कमाना था , तो उस संन्यासी ने तुझे यह घड़ा दिया ही क्यों था ? 

दुकानदार उसे लालच देता रहता था । वर्षों बीत गए । उदारचित ने वह घड़ा नहीं बेचा न ही उससे कोई लाभ कमाया । वह हर किसी को उस घड़े का जल पिलाकर परोपकार करता था । लोग उसके इस अच्छे काम की सराहना करते । 

उसी वर्ष इतनी गरमी पड़ कि नदी , नाले , ताल और कुएँ सूख गए । राजा धर्मदेव के राज्य में पानी का अकाल पड़ गया । लोग राज्य छोड़कर भागने लगे । बरसात आने पर भी जब पानी नहीं बरसा , तो राजा की चिंता दूनी हो गई । 

राजधानी के कुएँ भी सूखने लगे थे । लोग पानी के अभाव में प्यास से दम तोड़ने लगे । राजा ने राजमहल के कुएँ प्रजा के लिए खोल दिए , मगर उनसे भी कब तक काम चलता । एक दिन मंत्री ने आकर राजा को राजभर के घड़े के बारे में बताया । राजा मंत्री के साथ rajbhar के पास गए । उससे जल माँगा , तो उसने घड़े से उन्हें पानी पिला दिया । 

यह देखकर राजा चकित रह गए । वह प्रसन्न होकर बोले- " माँगो , जो माँगना है । " " नहीं , महाराज ! मुझे पानी का मोल नहीं चाहिए । " उदारचित बड़ी नम्रता से बोला । - " परन्तु मैं तो तुम्हें इनाम देना चाहता हूँ । सुना है , तुम लोगों को पानी पिलाकर जान बचा रहे हो । " - " महाराज , यह तो मेरा धर्म है । इसमें इनाम लेने की बात कहाँ से आ गई ? मैं कुछ नहीं लूँगा । " " ठीक है , तुम्हारी मर्जी । " इतना कहकर राजा और मंत्री चले गए । 

और अगले रोज उसे दरबार में पेश होने का आदेश दे गए । पीछे लोग तरह - तरह की बातें करने लगे- " मूर्ख ने राजा की बात ठुकरा दी है । पता नहीं , अब क्या दंड मिले इसे ? " उसके दूसरे दिन  जब राजभर जी राज दरबार में पहुंचे , तो उसका जोरदार स्वागत किया गया । 

राजा ने उन्हें स्वर्ण जटित सिंहासन पर बैठाते हुए कहा- " आज से तुम हमारे राज्य के जल - प्रबंधक हो । तुम्हें पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ प्रति महीने वेतन मिलेगा । क्या तुम्हें स्वीकार है ? यह तो पानी का मोल नहीं है !

 rajbhar ने राजा की उस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया । अब उसका शेष जीवन बड़ी सुविधा से बीतने लगा । चमत्कारी घड़े से राज्य के प्यासे लोगों को पानी पिलाकर अब भी उसे संतोष मिलता था ।

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