सुनहरा पंख समुद्र के किनारे मछुआरों की एक बस्ती थी । दिन में मछली पकड़ने के लिए वे समुद्र में चले जाते । पीछे से उनके बच्चे तट के आसपास उगे पेड़ों के नीचे खेलते रहते । वे लहरों के साथ आई सीपियों से माला बनाकर अपने घरों को सजाते थे ।
गांव के बाहर टीले पर नारियल का एक बड़ा पेड़ था । गांव वासियों का विश्वास था कि पहले यहाँ कोई देवता स्वर्ग से आकर तप करता था । उसी स्थान पर यह पेड़ उगा है । इसलिए सब उसे देवतरु कहते थे ।
साल में एक बार सभी मछुआरे एकत्र होकर उत्सव मनाते थे । उस दिन वे देवतरु को सुंदर - सुंदर उपहार भेंट करते । कन्याएँ उसकी आरती उतारती । मंगलगान के बाद , गांव के हर परिवार का मुखिया कपड़े से ढककर कोई चीज देवतरु को भेंट करता । उनकी मान्यता थी कि दूसरों की नजर लगने से उपहार दूषित हो सकता है ।
शाम को सभी उपहारों को वस्ती के सरदार के घर ले जाकर खोला जाता । जिसका उपहार सबसे सुंदर होता , उस दिन उस व्यक्ति की हर इच्छा पूरी हो जाती । इसी बस्ती में सौमैया नामक एक गरीब मछुआरा रहता था । उसके परिवार में उसकी पत्नी के अतिरिक्त एक पुत्र भी था - दासप्या । दासप्पा शक्ल - सूरत से सुंदर न था , परन्तु दिल का साफ था । जब वह छोटा था , तो अन्य बच्चे उसे चिढ़ाया करते ।
लेकिन सरदार की लड़की पाणिक्की को दासप्पा की मीठी - मीठी बातें बहुत अच्छी लगती थीं । एक बार बस्ती में उत्सव मनाया जा रहा था । सभी लोग अपनी अपनी भेंट लेकर देवतरु के पास आए । पर सोमैया सुबह से ज्वर में तप रहा था । उसकी पत्नी और पुत्र उसकी सेवा में लीन थे । उन्हें ध्यान ही न रहा कि आज उत्सव है ।
बाकी सब लोग अपने उपहार देकर लौट आए अगले दिन गांव में चर्चा फैल गई कि सोमैया ने देवतरु का अपमान किया है । अब जरूर गांव पर भारी विपत्ति आएगी । रात को सोमैया की तबीयत और खराब हो गई । बस्ती के हकीम ने दवा दी , पर कोई लाभ न हुआ । सुबह तक सोमैया बेहोश हो गया ।
अचानक जोरों की बारिश शुरू हो गई । तेज हवा के कारण समुद्र में ऊंची - ऊंची लहरें उठने लगीं । कुछ ही देर में वे बस्ती के घरों तक पहुँच गईं । सबको एहशास हो चूका था कि आज जरूर कुछ अशुभ होगा ।
तभी मुखिया सरदार ने घोषणा की- “ भाइयो , यह सब देवता का अपमान करने के कारण हुआ है । अपमान चूंकि सिर्फ एक परिवार ने किया है , इसलिए इसकी सजा भी उस परिवार के लोगों को ही मिलनी चाहिए । मेरी इच्छा है कि दासप्पा अपनी नौका लेकर समुद्र में जाए । यदि देव को इसे दंड देना होगा , वह इसे सागर में डुबो देंगे । दासप्पा समुद्र में नहीं जाएगा , तो देवता का क्रोध पूरे गांव को नष्ट कर देगा ।
समुद्र में उठती लहरों को देख , दासप्पा की मां रोने लगी । उसने कहा- " भला इस तूफान में दासप्पा कैसे बच पाएगा ? " पर गाँव का कोई भी व्यक्ति उसकी बात सुनने को तैयार न था । उन्होंने जबरदस्ती दासप्पा को पकड़कर नौका में बैठाया और नाव को में धकेल दिया । देखते - देखते नौका समुद्र की लहरों से टकराती आगे बढ़ने लगी ।
कुछ ही देर में वह काफी दूर निकल गई । लोग अपने घरों को लौट आए । कें दासप्पा की नैया समुद्र की तेज लहरों के थपेड़े खाती , आगे बढ़ती जा रही थी । दासप्पा को अपनी मृत्यु स्पष्ट दिखाई देने लगी । डर के मारे वह बेहोश होकर नौका में गिर पड़ा ।
अगले दिन जब उसे होश आया , तो उसने देखा - उसकी नाव एक के किनारे चट्टानों के बीच उलझी हुई है । दासण्या समझ नहीं पाया की , इतनी तेज लहरों में वह बच कैसे गया ? उसे भूख लग आई थी ।
वह नौका से उतरकर टापू पर आ गया । सामने एक शिला पर बैठकर वह अपने माता- -पिता के बारे में सोचता और रोता रहा । तभी उसकी नजर पेड़ के नीचे पड़े एक सुनहरे पंख की ओर गई । दासप्पा ने पंख उठा लिया । कुछ देर बाद अचानक उसे पंख फड़फड़ाने की आवाज सुनाई दी । दासप्पा ने देखा , एक विशालकाय सुनहरा पंछी आकर उसी पेड़ पर बैठा है । दासप्पा समझ गया , यह पंख इसी का है । वह छिपकर देखता रहा । पेड़ पर घने पत्तों के बीच सुनहरे पंछी का घोंसला था । पंखों की फड़फड़ाहट सुन , घोंसले से चूं - चूं की आवाज आई ।
दासप्पा समझ गया , जरूर यहाँ सुनहरे पंछी का बच्चा है । पंछी ने चोंच से अपने बच्चे को चुग्गा दिया और वह पुनः भोजन की तलाश में उड़ गया । पंछी की सुंदरता पर मुग्ध दासप्पा अपने सारे कष्ट भूल गया । वह उसके पुनः आने की प्रतीक्षा करने लगा । उसकी नजर अब भी घोंसले की ओर थी ।
अचानक एक काला नाग पेड़ की टहनियों पर रेंगता नजर आया । दासप्पा को समझते देर न लगी कि यह सुनहरे पंछी के बच्चे को खाने की ताक में है । बिना ज्यादा समय गंवाए , दासप्पा एक डंडा लेकर पेड़ पर चढ़ गया ।
धीरे - धीरे वह सांप की ओर बढ़ने लगा । सांप ने उसे अपनी ओर आते देखा , तो क्रोध से फुंकारने लगा । दासप्पा टहनी से चिपक गया और डंडे से सांप घर प्रहार किया । डंडे का वार बचाकर फुंकारते नाग ने दासप्पा को देखते देखते नाग ने फन उठा लिया । दासप्पा ने बिना डरे , डंडे से उसे पीछे धकेल दिया और फुर्ती से उसके फन को दबोच लिया ।
नाग गुस्से में भरकर दासप्पा के शरीर से लिपट गया । काफी देर तक दोनों का युद्ध चलता रहा । तभी सुनहरा पंछी चुग्गा लेकर वहाँ आ गया । उसे पूरी घटना समझते देर न लगी । अपनी चोंच और पंजों से उसने नाग को नोंच डाला । घायल होकर नाग दासय्या को छोड़ , जमीन पर गिर पड़ा और मर गया । पंछी ने दासप्पा से कहा- " इस टापू पर ढेरों मोती एवं कीमती पत्थर फैले पड़े हैं । तुम चाहो तो , उन्हें नौका में अपने साथ ले जा सकते हो । मैं आसमान में उड़कर तुम्हें रास्ता दिखा दूँगा । तुम मेरे पीछे - पीछे नौका चलाते रहना । " " मुझे तो सबसे सुंदर यह पंख लगता है । " - कहते हुए दासप्पा ने शिला पर रखा सुनहरा पंख पंछी को दिखाया ।
अपनी प्रशंसा सुन , पंछी को बहुत खुशी हुई । उसने ढेरों माणिक - मोती दासप्पा को भेंट किये । काफी दूर तक समुद्र में मार्ग भी सुझा दिया । मोतियों से भरी नौका लेकर दासप्पा घर लौटा । उसके आने की खबर सुन , सारी बस्ती के लोग एकत्र हो गए । सबने दासप्पा का दिल खोलकर स्वागत किया ।
दासप्पा की माँ को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसका बेटा जिंदा है । दासप्पा ने अपने पिता की आँखों पर सुनहरा पंख रख दिया । थोड़ी देर बाद सोमैया को होश आ गया । अगले दिन फिर से उत्सव का आयोजन हुआ । दासप्पा मोतियों से भरा थाल और सुनहरा पंख लेकर देवतरु के पास पहुँचा । और लोग भी उपहार लाए थे ।
शाम को सरदार के घर में उपहारों को खोला गया । दासप्पा की भेंट सबसे अव्वल रही । लोग दासप्पा का जय - जयकार करने लगे । सरदार ने कहा- " बोलो दासप्पा , तुम्हारी क्या मनोकामना है ? " दासप्पा ने " मेरी इच्छा है , पाणिक्की के साथ मेरा विवाह हो जाए। " फिर सरदार ने खुशी - खुशी से उसका विवाह अपनी पुत्री से कर दिया ।