बहुत समय पहले की बात है । गुजरात की सारंगपुर रियासत में , पाटनसिंह नाम के राजा राज्य करते थे । उनके राज्य में प्रजा बड़ी ही खुशहाल थी । फिर भी पाटनसिंह मन ही मन बड़े चिंतित और उदास रहते थे । उनकी परेशानी का कारण सारंगपुर में पीने के पानी की कमी थी । |
आसपास हरी - भरी पहाड़ियाँ होने पर भी , सारंगपर वासियों को पानी बड़ी दूर से लाना पड़ता था । जमीन चाहे कितनी ही खोदी जाए , सूखी रेत ही निकलती रहती थी । राजमहल के निकट एक बहुत बड़ा तालाब था । वह हमेशा पानी से लबालब भरा रहता था , परन्तु वह पानी विषैला था ।
तालाब के चारों ओर कांटेदार तार की बाड़ बना दी गई थी , ताकि कोई पशु या अनजान राही वहाँ पानी पीने पर काल का ग्रास न बने । राजा पाटनसिंह अक्सर महल के झरोखे में बैठ , दर्पण की तरह चमकते उस ताल को देखते । मन में सोचते - पानी का इतना विशाल भंडार होते हुए भी , प्रजा को पानी के लिए तरसना पड़ता है ।
तालाब के चारों ओर पक्के घाट बने थे , जो समय के साथ अब टूट - फूट गए थे । घाटों को देखकर घाटनसिंह समझ गए थे , इस तालाब का पानी सदा से विषैला नहीं होगा । कभी अवश्य इसका पानी पीने योग्य होगा , तभी चारों ओर पक्के घाट बने हैं । फिर कैसे पानी विषैला हो गया अवश्य किसी विशेष घटना से इसका सम्बन्ध है ।
पाटनसिंह ने कई विशेषज्ञों को तालाब के निरीक्षण के लिए भेजा था । वह चाहते थे , पानी के विषैले पानी के स्रोत का पता चले । उन्हें निराशा ही हाथ लगी । पानी इतना विषैला था कि पहला घूंट भरते ही पानी पीने वाले की मृत्यु हो जाती थी । राजा एक बार मंत्री सुमेरासह से बोले- " सुमेरसिंह , हमें तालाब के किनारे बने घाट देखकर पूर्ण विश्वास है कि इसका पानी कभी मीठा रहा होगा ।
कब और किस कारण यह विषैला हुआ ? यह एक ऐसा प्रश्न है , जिसका हमारे पास कोई जवाब नहीं । आप सारंगपुर के सबसे वृद्ध व्यक्ति से पूछकर देखें , शायद अपने जीवन काल में उसने इस तालाब के बारे में कुछ सुना हो । " पाटनसिंह के कहने पर मंत्री सुमेरसिंह राज्य के सबसे बृद्ध इन्शान के पास गए ।
उसकी उम्र सो वर्ष थी । उसने भी यही बताया- " मैंने सदा तालाब के पानी को विषैला ही देखा है " व्यक्ति एक वर्ष सारंगपुर में भयंकर सूखा पड़ा । वर्षा की एक बूँद भी न गिरी । सारंगपुर में जो गिने - चुने कुएँ थे , उनका जल - स्तर तेजी से घटता जा रहा था ।
इस तरह दो वर्ष बीत गए । वर्षा का नामोनिशान न था । सारंगपुर के लोगों को भीषण जल - संकट का सामना करना पड़ रहा था । यहाँ तक कि आसपास की पहाड़ियों के जल स्रोत भी सूख गए । विषेला तालाब अब भी पानी से लबालब भरा था । लोग कांटेदार बाड़ से घिरे उस तालाब को देख , दुखी हो उठते थे ।
सोचते - ' इतनी अपार जल राशि होते हुए भी हम बूंद - बूंद पानी को तरस रहे हैं । 'पाटनसिंह इस संकट से बहुत परेशान थे । सारंगपुर के मवेशी भी प्यास से मरने लगे थे । अंत में पाटनसिंह ने मंत्री सुमेरसिंह को बुलाया । बोले- “ सुमेरसिंह , राजमहल में जो कुआं है , उसे प्रजा के लिए खोल दो । "
यह आप क्या कह रहे हैं महाराज । " - मंत्री हैरानी से बोला " राजमहल का काम इसी कुएँ के पानी से चलता है । यदि इसे प्रजा के लिए खोल दिया गया , तो इसका पानी चार दिन में ही समाप्त हो जाएगा । फिर यहाँ पीने का पानी कहाँ से आएगा । " - " हमारी प्रजा प्यास से मर रही है । हम इस कुएँ के पानी पर एकाधिकार जमाएँ , ऐसा हरगिज नहीं हो सकता ।
आप आज ही महल के दरवाजे प्रजा के लिए खुलवा दें । " पाटनसिंह के कहने पर सुमेरसिंह ने महल के दरवाजे खुलवा दिए । लोग अब महल के कुएँ से पानी ले जाने लगे । इतने लोगों के पानी ले जाने के कारण कुएँ का जल स्तर तेजी से घटने लगा । यह देखकर पाटनसिंह ने घोषणा की - ' प्रति परिवार सिर्फ एक घड़ा पानी एक दिन में दिया जाएगा ।
राज परिवार भी एक घड़े पानी में ही गुजारा करेगा , क्योंकि इस पानी को अधिक से अधिक दिन चलाना है । ' ऐसे न्यायी और दयालु राजा की घोषणा सुन , प्रजा पाटनसिंह की जय - जयकार करने लगी । एक दिन अचानक रानी के हाथ से घड़ा गिरकर फूट गया । राजकुमार प्यास से व्याकुल हो रहा था , परन्तु राजा गम्भीर स्वर में बोले- " जो नियम प्रजा पर लागू है , वही हम पर लागू है ।
हम और पानी लाने की इजाजत नहीं देंगे राजकुमार को यूं ही बहला लीजिए । " राजा की बात पर मंत्री सुमेरसिंह रो पड़ा । तुरन्त अपने घर से एक सुराही पानी मंगवाया । उसने राजकुमार को पानी पिलाया । भरे गले से बोला- " इस देश के राजकुमार को भी पानी के लिए तरसना पड़ेगा ,कभी सोचा नहीं था ।
धन्य है महाराज आप , जो प्रजा के साथ , उन्हीं की तरह का जीवन बिता रहे हैं । " तभी अचानक एक सेवक भागा - भागा आया । उसकी साँस फूली हुई थी , मगर उल्लास से चेहरा चमक रहा था । उसने राजा को प्रणाम किया । खुशी से बोला- " महाराज चमत्कार हो गया । तालाब का पानी मीठा हो गया । उसका विषैलापन जा रहा ।
क्या राजा और मंत्री चौंक पड़े । - " हाँ , महाराज ! आज अचानक एक प्यासी गाय कांटेदार तार की बाड़ तोड़ , तालाब का पानी पीने लगी । लोगों ने सोचा , यह मर जाएगी , पर वह तो भरपेट पानी पीकर आराम से घास चरने लगी । " राजा विस्मय में थे ।
उस तालाब के विषैले पानी का तो घूंट भरते ही प्राणी मर जाता था । गाय पर विष ने कैसे असर नहीं किया ? सेवक ने फिर कहा- " महाराज , इस घटना को देखकर दो - चार और पशुओं को पानी पिलवाया गया । उन्होंने भी प्यास बुझाई । हिम्मत करके एक आदमी ने पानी पिया । उसी ने बताया , पानी अमृत - सा मीठा और शीतल है ।
अब महाराज , लोगों में उल्लास फैल गया । सभी तालाब का पानी भर - भर कर ले जा रहे हैं । " राजा इस घटना से आश्चर्य चकित थे । तभी सेवक ने आकर सूचना दी- " महाराज , एक साधु आपसे मिलना चाहते हैं । " " उन्हें आदर सहित ले आओ । " - पाटनसिंह ने जवाब दिया । साधु जब अंदर आए , राजा ने कहा- " महात्मन , आपके चरण इस राज्य में पड़ते ही , सारंगपुर में खुशी की लहर दौड़ गई ।
तालाब का विषैला पानी , अमृत - सा मोठा हो गया । " “ ये हमारे नहीं , तुम्हारे पुण्य - प्रताप का फल है राजन् । ” - साधु ने मुसकराते हुए कहा । " मेरे ? " - राजा ने मुसकराते हुए कहा ।" हाँ । " - साधु ने कहा । वह बताने लगे- " अभी कुछ समय पूर्व ही मेरे गुरु ने प्राण त्यागने से पूर्व मुझे एक घटना बताई ।
मेरे गुरु बड़े ही सिद्ध पुरुष थे । दो सौ दस वर्ष की आयु में उन्होंने समाधि ली । उन्होंने बताया , चार सौ वर्ष पूर्व सारंगपुर में आपके पितामह के पितामह रिपुदमन राज्य करते थे । वे बड़े ही निरंकुश राजा थे । प्रजा के सुख दुःख से उन्हें कोई सरोकार नहीं था । यह तालाब उन्होंने बनवाया था । वहाँ वह अक्सर जल क्रीड़ा करने जाते थे ।
आम आदमियों का प्रवेश वहाँ निषिद्ध था । एक बार सारंगपुर में भयंकर सूखा पड़ा । प्रजा पानी की बूँद - बूँद के लिए तरसने लगी । प्रजा ने राजा रिपुदमन से प्रार्थना की , तालाब प्रजा के लिए खोल दें , ताकि प्यास से मर रहे मनुष्य और पशु राहत पा सकें , पर रिपुदमन ने उनकी एक नहीं सुनी ।
तभी हमारे गुरु वहाँ आ पहुँचे । प्यास से उनका कंठ सूख रहा था । फिर भी राजा ने उन्हें पानी नहीं पिलाया । " गुरुदेव की नजर तालाब पर पड़ी । वह पानी पीने के लिए वहाँ जाने लगे । सेवकों ने उन्हें रोक दिया । गुरुजी को क्रोध आ गया । उन्होंने शाप दे दिया - '
आज से इस तालाब का पानी विषैला हो जाएगा । जब इस वंश में कोई प्रजा पालक राजा होगा , तभी इस जल का विषेलापन जाएगा । ' आपने अपने महल का कुआं प्रजा के लिए खोलकर , प्रजा के प्रति जो कर्त्तव्य निभाया , उसी से गुरु जी का शाप वरदान में बदल गया । " यह कहकर साधु चले गए । प्रजा को उस राज्य में फिर कभी पानी के लिए तरसना न पड़ा ।