अधिक धन का लोभ विनाश का कारण | Sagar's daughter

 

पैसों के लालच में खोई बेटी

सेठ राम प्रसाद की शादी को जब 10 वर्ष बीत जाने पर भी कोई संतान न हुई तो दोनों पति - पत्नी को बड़ी चिंता होने लगी । " संतान के बिना तो घर खाली है । " देखने सुनने वाले और तरह तरह की बातें बनाते हैं । कोई नारी को बाँझ बोलता है तो कोई सेठजी को नपुसंक । भले ही मुँह पर कोई कुछ न कहे किन्तु पीठ के पीछे तो ऐसी बातें लोग खूब खुलकर करते हैं । 

दोनों पति - पत्नी जब रात के खाने के पश्चात् सोने के लिए लेटते तो उन्हें सबसे अधिक दुःख इसी बात का होता कि शादी के 10 साल बीत जाने पर भी उनके घर में अभी तक कोई बच्चा नहीं जो रात को सोते समय उनसे बातें करे । पिता से कहानी सुने और माँ से लोरी सुनकर सो जाए । 

दुःख तो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था । किन्तु यह दुःख तो ऐसा था जिसका कोई उपचार ही नहीं था । जो अंदर ही अंदर दीमक लगी लकड़ी की भाँति उन्हें खोखला करे जा रहा था । इसी दुःख के कारण उन्हें नींद ही कहाँ आती थी । बस लेटे - लेटे करवटें बदलते रहते । 

एक पूर्णमासी की रात थी जब सेठ राम प्रसाद की पत्नी अपनी संतान न होने के दुःख को सहन न कर पाई तो उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे । वह आँखें बंद करके सोना चाहती थी किन्तु नींद ही कहाँ थी जो उसे आती । मन में चिंता , दिलों में उदासी और आत्मा थी प्यासी । 

रानी ने अंधेरे में एक साधु को देखा जिसकी लम्बी सफेद दाढ़ी घुटने तक आई हुई थी । सिर के सफेद बाल पीछे की ओर जाते हुए घुटनों तक चले गए थे । उसके एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में फूल थे । साधु बाबा को अपने पास खड़े देखकर रानी ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया । 

सदा प्रसन्न रहो बेटी , चिर आयु को प्राप्त कर संसार के सब आनन्द प्राप्त करो । " बाबा ! क्या आपकी बात सत्य हो सकती है ? " " हम साधु - संयासी लोग मुँह से जो भी शब्द ' निकालते हैं वह कभी झूठ नहीं होता , क्योंकि हमारी आत्मा से तो प्रभु की वाणी निकलती है । "

साधु " हाँ " जी ! क्या हम भी कभी माँ बन पाऊँगी ? " ' लेकिन हमारी शादी को 10 वर्ष बीत गए हैं । अभी तक तो हमने संतान का मुँह नहीं देखा । " " 10 वर्ष ही तो बीते हैं बेटी ! अभी उम्र तो नहीं बीती । " अब तो आपकी आशा पूरी होने वाली है ।

क्या आप सच कह रहे हैं बाबा ? "  हाँ बेटी ! जाओ अब चैन की बाँसुरी बजाओ । जल्द ही तुम्हें संतान अवश्य मिलेगी । ” एक वर्ष बीत जाने के पश्चात् रानी की कोख से एक चाँद सी बेटी ने जन्म लिया । सेठ राम प्रसाद और उनकी पत्नी बेटी को पाकर बहुत प्रसन्न हुए । उस बच्ची का नाम लक्ष्मी रखा गया । 

सात दिन तक सेठजी की कोठी में गीता का पाठ होता रहा और सात दिन तक ही घर पर लंगर चलता रहा । शहर के सब गरीबों को खाने के साथ - साथ कपड़े भी बाँटे गए । गाने चलते रहे । भजन कीर्तन होते रहे । चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ थी । 

सेठ राम प्रसाद की कोठी तो दुल्हन की तरह सजी हुई थी । उसे सजे हुए देखकर तो ऐसा लगता था जैसे यहाँ पर कोई शादी हो रही हो । एक वर्ष बीत गया । लक्ष्मी का पहला जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाया गया । उसी दिन सेठ जी के एक पुराने मित्र सुधीर पाल भी सिंगापुर से इस पार्टी में भाग लेने के लिए आए हुए थे । 

उन्होंने सिंगापुर के लिए एक पानी वाला अपना जहाज़ बुक़ किया था जिसमें लादकर वह भारत से सिंगापुर काफी माल ले जा रहे थे । सुधीर पाल ने सिंगापुर में अपना बहुत बड़ा कारोबार जमा रखा था । उनकी अपनी शिपिंग कम्पनी थी । जिससे वे दुनियाँ भर से माल लादकर ले जाते और सिंगापुर में लाकर बेचते । 

धन कमाने का इससे अच्छा रास्ता और कौन सा मिल सकता था । कौन जानता था कि आज से कोई दस वर्ष पूर्व यही पाल शिप पर एक साधारण मज़दूर भरती हुआ था । 'बालेन्द्र राजभर के जहाज़ पूरी दुनियाँ में घूमते थे । फिर पाल को भी दुनियाँ देखने का मौका मिल गया क्योंकि पाल का दिमाग तो हर समय धन क़माने में ही लगा रहता था । 

दुनियाँ में फैले माया जाल को देखकर उसके मुँह में भी पानी भर आया और वह धनवान बनने के सपने देखने लगा और उसके अपने सपने साकार हो , गए । जब उसने भारत से रेडीमेड कपड़ों का पूरा शिप भरकर सिंगापुर ले जाकर बेचा तो उस काम के दो गुने मिल गए । 

दूसरी बार उसने चाय से भरा जहाज़ ले जाकर जापान में बेचा तो खूब धन कमाया । फिर क्या था , पहला ही कदम उठाना कठिन लगता है । दूसरा कदम तो अपने आप उठने लगता है । थोड़े ही समय में पाल सिंगापुर का बहुत बड़ा धनी नागरिक बन गया । धन की भूख इन्सान कभी पूरी नहीं कर पाता । 

किसी भक्त कवि ने ठीक ही कहा है " माया मरी न मन मरे , मर - मर गए शरीर आशा तृष्णा न मिटी , कह गए भक्त कबीर " यह बात तो सत्य है कि मानव की आशा तृष्णा कभी भी नहीं मिटती । जब भी कुछ मिटता है तो वह केवल मानव शरीर है । मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है । ले के कुछ आता नहीं । सब कुछ यहीं रह जाता है । 

मनुष्य इस माया के पीछे पागलों की भाँति भागता रहता है और यह माया तो एक खेल है । धूप - छाँव जैसा खेल - तमाशा है । जो पल में तोला पल में माशा है । फिर भी लोग इस माया के पीछे पागलों की भाँति घूम रहे हैं । 

पाल के पास आए धन को देखकर राम प्रसाद के मुँह में पानी भर आता था । हालाँकि उसके पास भी तो धन की कोई कमी नहीं थी , परन्तु फिर भी दूर के ढोल सुहावने नज़र आते हैं । किसी ने ठीक हो कहा है कि- " अपनी अक्ल बेगानी माया । " दूर - दूर तक बहुत ही बहुत माया नजर आती है । 

राम प्रसाद के मन में और धन कमाने की लालसा पैदा हो गई तो उसने भी सिंगापुर जाने का फैसला कर लिया । पाल का शिप पूरे का पूरा माल से भरा हुआ था । राम प्रसाद अपनी बेटी और पत्नी को लेकर सिंगापुर की ओर जा रहा था । वह पानी वाले जहाज में पहली बार ही बैठा था । चारों ओर पानी ही पानी था । उसमें उनका जहाज़ तैरता जा रहा था । 

अचानक ही भंयकर तूफान आ गया । जहाज़ इस समुद्री तूफान का मुकाबला करने में बेबस नज़र आने लगा । तूफान की गति के साथ ही जहाज़ घूमने लगा । “ होशियार ... होशियार ... ! तूफान आ चुका है । अपने बचाव की तैयारियाँ कर लो । तैरने का सामान तैयार रखो । किसी भी समय कुछ भी हो सकता है । ' जहाज़ में बैठे सब लोग एकदम से घबरा गए थे । 

मौत तो सबको सामने नज़र आ रही थी । सागर में डुबने के पश्चात् कौन कैसे बचेगा ? मौत का नंगा नाच सामने नज़र आने लगा था । ऐसे समय पर तो सब भगवान से ही प्रार्थना कर रहे थे कि वही उनकी रक्षा करेगा । होनहार कभी टाले नहीं टलती । समय के आगे किसी का बस नहीं चलता । 

तूफान आया जहाज़ पलटा और फिर अपने आप सीधा भी हो गया , परन्तु इस दुर्घटना में अनेक लोग सागर में डूब गए । इनमें सेठ राम प्रसाद की पुत्री लक्ष्मी भी थी जो सागर में गिर गई । सेठ राम प्रसाद और उसकी पत्नी अपनी बेटी को खोकर रोते - रोते पागल हो गए थे । अब उनके पास इन आँसुओं के सिवा रहा भी क्या था ? वे बार - बार अपने भाग्य को कोस रहे थे- 

काश ! धन के लोभ में अंधे होकर सिंगापुर जाने को तैयार न होते । कम से कम उनकी बेटी तो हाथ से न जाती । " परन्तु अब क्या हो सकता था ? प्रभु की शक्ति के आगे मानव शक्ति क्या काम कर सकती थी । फिर उनके सामने और भी तो बहुत से लोग डूब गए थे । उन्हें देखकर ही दिल को तस्सली देने वाली बात थी ।

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