आज पाँचवे दिन गंगाराम पटेल और बुलाखी नाई शौच आदि से फारिग होकर चन्दौसी की रास्ता तय करने के लिए चल पड़े । चार मील के बाद एक नगर मिला तो वहाँ पेट की खातिर एक वरुआ साँपों को खिला रहा था और बीन बजा रहा था । तब बुलाखी नाई गंगाराम पटेल से कहने लगा महाराज ! थोड़ा सा जल आचमन कर लो और तमाशा देख लो ।
गंगाराम पटेल कहने लगे कि जैसी तेरी इच्छा हो वही कर । तब बुलाखी नाई ने कुँए से जल खींचकर गंगाराम को पिलाया और खुद पीकर लोटा डोर खुर्जी में रख उस साँप वाले वरुए से कहा कि साँप वाले हमारे महाराज बैन बाँधने में बहुत होशियार हैं अगर तू जनता को तमाशा दिखाना चाहे तो दिखा । तब बरुआ कहने लगा , मैं तैयार हूँ । मेरे बैन को कोई नहीं बाँध सकता है ।
तब बुलाखी नाई गंगाराम से हाथ जोड़कर बोला , महाराज जरा घोड़े से उतर पड़ो और बैन को बाँधिये और जनता को तमाशा दिखाइये । इतनी सुनकर महाराज घोड़े से उतर पड़े और खड़े होकर कहने लगे कि थोड़ी - सी कंकड़ी बीनकर मुझे दे दो । एक आदमी ने ककड़ी बीनकर गंगाराम पटेल को दे दी । तब गंगाराम पटेल ने कहा - हे बरुए ! कल को कुछ हो गया तो मैं जिम्मेदार नहीं हूँ । तब बरुआ कहने लगा कि सबका मालिक ईश्वर है ।
तुम अपनी करनी में न चूकना । तब गंगाराम पटेल ने कहा - हे भाई ! तू बैन बजा और होशियार रहना । बैन बजने लगा और कुछ देर गंगाराम पटेल ने मन्त्र पढ़ - पढ़कर कंकड़ी मारीं , में बैन रुकने लगा फिर महाराज ने कंकड़ी मारी तो बैन बजने से बन्द हो गया और छक्की छूटने लगी । तब महाराज ने जनता से कहा - हे भाइयो ! एक आना दो आना इसके चादर पर डालो तमाशा और भी दिखाऊँगा ।
सब किसी ने दो - दो चार - चार आने डाल दिये । फिर महाराज ने मन्त्र पढ़कर बरें छुड़ा दी तो वह बरुआ को काटने लगी । तब वह हाय तौबा करने लगा । कुछ रोटी अनाज और भी उसके पास आ गया । फिर मन्त्र पढ़कर एक कंकड़ी मारी तो बरुआ ठीक हो गया । इतना तमाशा दिखाकर गंगाराम patel ने बुलाखी नाई को साथ लेकर अपना रास्ता पकड़ा । चलते - चलते शाम हो आई और थक भी गए तो एक बाग मिला और दोनों जने उसमें घुस गये तथा घोड़े को एक वृक्ष से बाँध दिया और बिस्तर लगाकर जलपान किया और बाग की सैर करने लगे
बाग का थोड़ा सा हिस्सा देखकर गंगाराम पटेल और बुलाखी नाई अपने -2 बिस्तर पर आये । बुलाखी 10 रुपये लेकर बाजार को गया और सभी सामान लेकर चल दिया और चारों तरफ निगाह घुमाता हुआ जब चौराहे पर आया तो क्या देखता है कि एक तरफ धूनी लगाये महात्मा बैठा है उसके पास एक औरत अपने पैर मर्द के कन्धे पर रखे हुए खड़ी है ।
ऐसा अजूबा चरित्र देखकर फौरन गंगाराम पटेल के पास आया और बोला - कि महाराज तुम्हारा सामान तो मैं ले आया अब देखे हुए अजूबे चरित्र का जवाब दीजिए । तब गंगाराम बोले दोहा- क्यों इतना घबड़ाय तू , धीरज मन में धार । चौका बर्तन साफ कर , भोजन करूँ तइयार ॥ दाना रातव अश्व को , देना जल्द खिलाय । हम तु " भोजन पाइलें , कहना सब समझाय ॥
तब बुलाखी नाई रोजाना की तरह सब काम से फारिग हुआ । तब गंगाराम कहने लगे कि बुलाखी नाई अब तू अपने देखे हुए अजूबा चरित्र को कह । तब बुलाखी नाई ने वह देखा हुआ अजूबा चरित्र कह दिया तब गंगाराम कहने लगे - हे बुलाखी नाई ध्यान देकर सुन । बदायूँ नगर में एक ब्राह्मण रहता था । जिसका नाम नेत्रपाल था उसकी स्त्री अच्छे स्वभाव वाली थी । वह काफी धनवान था ईश्वर की कृपा से उसके एक लड़का था , जिसका नाम निरोत्तम था । जब वह सोलह - सत्रह साल का हो गया तो शादी वाले आने लगे तो निरोत्तम के पिता ने शादी तय कर ली । बड़े जोर शोर के साथ विवाह किया ।
लड़की के पिता ने खूब दहेज दिया । लड़की का नाम विद्यावती था । कुछ दिन के उपरान्त गौना चाला सब हो गया । विद्यावती आकर अपने सास ससुर की खूब सेवा करती थी और पति की आज्ञा में प्रतिदिन रहती थी । कुछ दिन बाद निरोत्तम के माँ - बाप मर गए , इसके बाद निरोत्तम सन्तों की सेवा करने लगा और सारा धन सन्तों के ही हित लगा दिया ।
अब निरोत्तम के पास कुछ न रहा । अब तो भूखों मरने लगे । तब निरोत्तम की स्त्री बोली दोहा - कुछ करनी कुछ करम गति , कुछ पूर्व के पाप । तासौ जिय गति है गई , कहा करोगे आप | बुरौ कर्म कोई ना कियो , तासौ भए धन हीन । करम लिखौ सो ना मिटे , ना धन लीनों छीन ॥ चलौ कहीं परदेश को , बात न पूछे कोय । जैसे राखे साइयाँ , तेहि विधि जीवन होय इतना कहकर दोनों जने घर से निकलकर चल दिए और चलते - चलते एक वियाबान जंगल में जा पहुँचे ।
जब शाम होने आई तब कुछ फल फूल खा थोड़ा सा जल पी एक वृक्ष की खोलर में बैठ गए । जब रात हुई तब क्या देखते हैं कि एक झाडू वाला झाडू लगा गया । पानी वाला आया वह छिड़काव कर गया । बिछौना करने वाला आया वह बिछौना कर गया । इसके बाद मसालें जलाते हुए बहुत से देवता आए और गाना बजाना होने लगा , अप्सरायें नाचने लगीं ।
जब चार बजे का वक्त हुआ तब इन्द्र का अखाड़ा रवाना हो गया तब निरोत्तम कहने लगा कि हे प्राणप्यारी ! तूने निर्धन होने का कारण क्यों न पूछा यह तूने बड़ा गजब किया । मुझे मालूम न की अगर मुझे मालूम होती तो में अवश्य पूछ लेती और वक्त हाथ नहीं आता । जैसा हमने किया वैसा ही भोगना पड़ेगा । दोहा- चूक हुई हमसे पिका , फेर तमाशा होय ।
हम तुम दोनों पूछेंगे , दिन में लेना सोय इतनी आपस में बातचीत करके दोनों जने सो गए जब सोते से जागे तो विद्यावती की निगाह अपने प्राणपति की तरफ गई तो क्या देखती है कि उसे कुष्ठ हो गया ऐसा देखकर बड़ी दुःखित हुई , लेकिन कुछ न कह सकती । बस शाम हुई और रात का समय हुआ सो उसी वृक्ष की खोह में बैठ गए और झाडू बाला झाडू देकर वापिस गया । छिड़काव कर गया , बिछौना बिव गया ।
बाद में इन्द्र अखाड़ा आया और नाच होने लगा । जब ऐसा मौका देखा तो राजा इन्द्र के विद्यावती ने पैर पकड़ लिए और कहा कि हे पिता ! मुझे यह बताओ कि हम दोनों आदमियों ने धर्म किया फिर निर्धन कैसे दूसरे प्राणपति कुष्ठी कैसे हुए । तब इन्द्र कहने लगा - हे बेटी ! यह मेरे बलबूते की नहीं है । तुम इस बात को शिवजी से जाकर पूछना । शिवजी कैलाश पर्वत पर मिलेंगे ।
इतनी कहकर इन्द्र सभा चार बजे उठ गाई निरोत्तम और विद्यावती दोनों जने कैलाश पर्वत पर पहुँचे । वहाँ जाकर दोनों जने शिवजी की सेवा करने लगे । जब शिवजी की तारी खुली तो कहने लगे कि हे बेटी ! तू यहाँ किस कारण से आई ? तब विद्यावती कहने लगी दोहा- धरम किया निर्धन भये , कुष्ठी भयौ भरतार । करम कहा खोटौ करौ , दोनों जनम बिगार ॥ कुष्ठी पति जो मिला है , निर्मल करी शरीर । ये ही चाहूँ आपसे , हरी हमारी पीर ॥
तब शिवजी कहने लगे कि हे बेटी ! तू ब्रह्मा के पास जा यह मेरे वश का काम नहीं है । मैं भी तुम दोनों के साथ चलता हूँ और कैलाश पर्वत से तीनों जने चल दिए और पुष्कर में ब्रह्मा के पास पहुँचे । ब्रह्मा ने शिवजी को आसन दिया और आने का हाल पूछा तब विद्यावती ने सारा हाल बताया । फिर ब्रह्मा कहने लगे कि यह मेरे वश का काम नहीं है , तुम विष्णु जी के पास चलो मैं भी चलता हूँ । अब तो चारों जने चल दिये और चलते -2 विष्णु जी के पास पहुँचे ।
फिर विद्यावती कहने लगी कि हे तीन लोक के नाथ ! हम धर्म करते हुए निर्धन हो गए और मेरा पति कोड़ी हो गया है । सो हे पिता ! मुझको धन की तो इच्छा नहीं है , मुझे अपने पति की इच्छा है , इसे अच्छा कर दो । तब विष्णु जी महाराज बोले - कि हे बेटी ! ध्यान देकर सुन , तू अपने पति को चारों धाम तीरथ करा । जिसके तू बाद डींग भरतपुर जाना और वहाँ एक महात्मा बैठा मिलेगा , उसकी तारी लगी होगी जब तारी खुल जावे तो पैर पकड़ लेना तो तेरी इच्छा के मुताबिक काम हो जायेगा ।
सो हे बुलाखी नाई ! इतनी कह सबके साथ अलोप हो गए और निरोत्तम और विद्यावती दोनों जने वहाँ से चल दिए । कुछ देर बाद निरोत्तम कहने लगा - हे प्राण प्यारी ! तीर्थ कैसे होंगे मेरा तो शरीर थर - थर काँपता है । तब विद्यावती कहने लगी कि प्राण पति घबराइए न मैं सब तीर्थ करवाऊँगी ।
तब विद्यावती अपने पति को लेकर धीरे - धीरे गयी , जगन्नाथ के दर्शन करा सेतबन्धु रामेश्वर को ले गई । वहाँ से द्वारकापुरी और फिर वहाँ से बद्रीनाथ के दर्शन कराये । गर्ज यह कि चन्द्र साल में सब तीर्थ करा दिए । बाद में डींग की सुरति लगाई और अपने पति को कन्धा पर बिठाया कोढ़ चुचा रहा था इतने में एक मुसाफिर और उसकी स्त्री आ रहे थे ।
तो राहगीर की स्त्री बोली - कि ऐ बहिन ! तू बहुत बावरी है जो कोढ़ी को कन्धे पर धरे हुए है । इसके ऊपर मक्खी भिनकती हैं , तो वह बोली दोहा- जो कुछ लिखा कलाम में , कछू होय ना और । यह मेरा खामिद बहिन , पटक देउ किस तौर ॥ पति की सेवा जो करे , भवसागर तर जाय । चली जाय बैकुण्ठ को , कहीं रोक ना खाय ।। अगर बहिन तुझ सी स्त्री दुनियाँ में सभी हो जायें तो महा प्रलय हो जाय ।
तू मुझको व्यभिचारिणी मालूम देती है । इतना कह विद्यावती ने अपनी राह ली । सो हे बुलाखी नाई विद्यावती पति को कन्धे पर घर डींग भरतपुर आ गई और उसी महात्मा के पास गई । जो एक पाँव से कन्धे पर पति को रखकर खड़ी है । इस कारण से कि मेरा पति अच्छा हो जाये । सो हे बुलाखी नाई ! तू उन दोनों स्त्री पुरुषों को देख आया है । तेरे सवाल का जवाब पूरा हुआ अब आराम करो ।