गुणवंती एक भोली लड़की थी । वह अपने माता - पिता की बुढ़ाये की संतान थी । बेचारी की माँ बचपन में ही चल बसी थी । घर में भाभियों का राज हो गया । भाभियाँ चाहती थीं , गुणवंती घर के बाहर ही रहे । वे अपने बच्चों को अच्छा भोजन कराएँ , तो उसमें से गुणवंती को हिस्सा न देना पड़े ।
भाभियाँ सुबह ही दो बासी रोटियाँ उसे कपड़े में बाँधकर देती और जानवर चराने भेज देतीं । साथ ही उसे शाम को लौटते समय घास छीलकर भी लानी पड़ती । इस तरह सुबह से शाम तक वह किसी न किसी काम में फँसी रहती । चौके - चूल्हे के पास भाभियों का राज था । उसे जो रूखा - सूखा मिलता , उसी को खाकर हारी - थकी गुणवंती रात को खाट पर सो जाती । अपने दुःख की बात किससे कहती ?
भाई भी भाभियों के इशारों पर नाचते थे । पिता थे बूढ़े । धीरे - धीरे वह जवान होने लगी । गुणवंती विवाह लायक हुई , तो बूढ़े पिता ने उसके हाथ पीले कर , छुट्टी पा ली । मगर मुसीबतों का पहाड़ टूटा बेचारी गुणवंती पर । वह ससुराल पहुंची , तो दहेज के रूप में कुछ खास न पाकर सास मन ही मन जल उठी ।
तीसरे दिन ही सास ने पूरे गाँव को बहू देखने का न्यौता दे डाला । उस दिन गुणवंती से कहा " बहू , आज तुझे ही खाना बनाकर घर - परिवार वालों को खिलाना है । " गुणवंती चौके में चली गई , पर परेशान । क्या बनाए ? कैसे बनाए ? सब्जियाँ उसने काट लीं , पर इतने लोगों के लिए छौंकने की हिम्मत ही न पड़ी । आटा भी था , पर इतनी ढेर सारी पूरी अकेले कैसे बनाए ? आज हलुआ बनना था , वह कैसे बनाए ? उसने कभी खाना बनाया ही न था ।
कुछ समझ में नहीं आया , तो वह बैठकर रोने लगी । कुछ देर बाद सास आई । रसोई का हाल देखकर चिल्लाई “ अरी , तू क्या कर रही है ? अभी तक कुछ नहीं बनाया । आने वालों को क्या खिलाएगी ? " गुणवंती कुछ बोल पाना मुश्किल हो गया। आखिरकार सास माँ को ही भोजन पड़ा परन्तु तभी से सास ने सभी लोगो के रहते हुए उसे बहुत जली-कटी कुबोली सुनाना प्ररम्भ कर दिया । कहा – “ नाम है गुणवंती , मगर है मिट्टी की धोधा । खाना बनाना तक नहीं आता । पढ़ी - लिखी भी नहीं । मेरे बेटे के तो भाग्य फूट गए ।
मैं इस निखट्टी को घर में रखकर क्या करूँगी ? " गुणवंती परेशान हो उठी । उसने कोशिश की , सास को सच्ची बात बता दे और कहे- " मुझे खाना बनाना सिखा दो । " मगर सास का गुस्सा देख , उसकी हिम्मत जवाब दे गई । दिन बीतते रहे और साथ - साथ सास का गुस्सा भी बढ़ता रहा ।
बहू गुणवंती खाना नहीं बनाती थी , इसीलिए सास ने उसे नदी से पानी लाने का कठिन काम सौंप दिया । एक दिन सुबह की किरण निकलने से पहले वह पानी लेने चल दी । नदी पर जाकर गुणवंती सुसक-सुसककर रोने लगी ।
तभी पीछे से किसी ने बड़े दुलार से उसे थपथपाया । गुणवंती ने पलटकर देखा , तो दंग रह गई । कई रंग - बिरंगी , मनमोहक परियाँ उसके पीछे खड़ी थीं । परियों ने उससे अकेले में बैठने का कारण पूछा । गुणवंती ने अपनी परेशानी भरी राम कहानी सुनाते हुए कहा - " माँ को छोड़कर मेरे सब रिश्तेदार हैं । फिर भी बिल्कुल अकेली हूँ ।
आज माँ होती , तो क्या वह मुझे खाना बनाना न सिखाती ? " गुणवंती की बात सुन , परियों को उस भोली लड़की पर बड़ा तरस आया । उन्होंने समझाया - “ तुम परेशान न हो । हम तुम्हें एक जादुई पुड़ियाँ देते हैं । पुड़िया में से थोड़ा - सा पराग लेकर तुम बर्तन में डाल देना । फिर खाने की जिस चीज का नाम लोगी , वह तुम्हें तैयार मिलेगी । घर वाले समझेंगे , तुम बनाती हो ।
तुम रोज इसी समय पानी भरने आया करो । रोज हमसे एक पुड़िया ले जाकर खाना बनाओ । पर याद रखना , इस बात का राज जिस दिन किसी को बता दोगी , हम तुम्हें यहाँ नहीं मिलेंगी । " कहकर परियों ने उसे पुड़िया दे दी । उस दिन उसने ऐसा स्वादिष्ट खाना बनाया कि सास भी अँगुलियाँ चाटती रह गई । बस , गुणवंती की धाक जमने लगी ।
एक सुबह गुणवंती को उठने में देर हो गई । वह जल्दी - जल्दी नदी तट पर पहुँची , मगर परियाँ न मिलीं । वह बड़ी देर इंतजार करती रही । सूरज काफी चढ़ आया , तो हारकर घर लौटी । आज वह खाना नहीं बना पाई । अब तो सास की बन आई । बोली ' अजीब नखरे हैं इस बहू के । अच्छा - खासा खाना बनाना आते हुए भी , हाथ पर हाथ धरे चौके में बैठी है । अब मेरी भी जिद देख , मैं भी खाना नहीं बनाऊँगी । "
गुणवंती ने खाना बनाने की कोशिश की , उस दिन सब्जी में नमक तेज हो गया और दाल जल गई । यह देखकर घर में हंगामा - सा उठ खड़ा हुआ । शाम को सास ने बेटे से कहा " अजीब सिरफिरी है यह बहू ! अब तक इतना अच्छा खाना बनाती थी । आज सारा खाना बेकार बना दिया । पता नहीं क्या चाहती है ? "
तू गुणवंती का पति भी परेशान था । उसने गुणवंती से पूछा इतना अच्छा खाना बना लेती है , पर आज क्या हो गया तुझे ? " गुणवंती सुबकती हुई बोली- " अभी में तुम्हें कुछ नहीं बता पाऊँगी , पर समय आने पर तुम्हें सब कुछ बता दूँगी । मैंने जान - बूझकर कुछ नहीं किया । "
इसके बाद गुणवंती रोज तड़के पानी लेने जाती , पर परियाँ उसे न मिलतीं । कुछ दिन बाद शुक्ल पक्ष आया । चाँदनी रातें शुरू हुई । परियाँ फिर धरती पर घूमने आई । एक दिन गुणवंती को भी मिलीं । उन्हें देखते ही गुणवंती की जान में जान आ गई । उसने रो - रोकर अपनी मुसीबत बताई । परियाँ दुखी होते हुए बोलीं- " हम परियाँ अँधेरी रात में घूमने - फिरने नहीं निकलतीं ।
उस अंतिम रात अगर तुम हमें यहाँ मिल गई होतीं , तो हम तुम्हें कोई पुड़ियां एक - साथ दे देती । तुम तो सूरज की किरणें निकलने तक आई ही नहीं । मगर जो बीत गया , उसे भूल जाओ । लो , पुड़िया ले जाओ । अपनी सास को अच्छा खाना बनाकर खिलाओ । वह खुश हो जाएगी । "
आज गुणवंती ने पुड़िया लेने से इंकार करते हुए कहा - " पुड़ियों का चक्कर फिर मुझे परेशानी में डाल सकता है । मैं अपने घर में शांति से रहना चाहती हूँ । वह तभी हो सकता है , जब मैं बिना पुड़ियों के खाना बनाना सीख जाऊँ । तुम मुझे खाना बनाना सिखा दो । "
परिया बोलीं- " भोली लड़की , हम खाना खाती ही नहीं , तो बनाना क्या सिखा पायेंगी । " गुणवंती चुप थी । उसे परेशान देख , परियों ने आपस में कुछ विचार किया , फिर गुणवंती से बोलीं- " हम तुम्हें राज की एक बात बताती हैं । हम परियाँ धरती पर आने से पहले एक बहुत ही झीना वस्त्र ओढ़ती हैं , ताकि धरती की धूल - धक्कड़ या कीड़े - मकोड़े हमारे ऊपर बुरा असर न डालें ।
इस वस्त्र की दो विशेषताएँ हैं - यह चाहे जितना बड़ा या छोटा हो सकता है । दूसरी विशेषता है कि रात में तो कोई हमें देख सकता है , पर सूरज की किरणें निकलने पर हमें कोई देख नहीं सकता । हम अपना एक वस्त्र तुम्हें देती हैं । उसे ओढ़कर रसोई घर में जाना । सास खाने में क्या चीज , कैसे बनाती है , तुम वहाँ खड़ी होकर चुपचाप देखती रहना । सास तुम्हें नहीं देख पाएगी । मगर अँधेरे में ऐसा मत करना । बस , इस तरकीब से थोड़े ही दिनों में तुम खाना बनाना सीख जाओगी । हाँ , इस बारे में किसी को कुछ बताना नहीं , वर्ना यह वस्त्र हवा में उड़कर दूर चला जाएगा । "
गुणवंती को इस बात से डर तो बहुत लगा , पर मरती क्या न करती । उसने वस्त्र ले लिया । उसे ओढ़ा , डरती - डरती चौके में पहुँच गई । इस तरह दस - पन्द्रह दिन बीत गए । अब गुणवंती खाना बनाने की विधि जान गई । एक दिन उसकी सास को बुखार आ गया । जब वह खाना बनाने चौके में पहुँची , तो चक्कर आने के कारण हाथ - पैर नहीं चल रहे थे ।
उन्हें हाँफती देखकर गुणवंती को तरस आ गया । वह भूल गई कि उसे यहाँ सिर्फ चुप खड़े रहना है । उसने धीरे से बेलन उठाया और रोटियाँ बेलने लगी । जादुई वस्त्र ओढ़े होने के कारण गुणवंती दिखाई नहीं देती थी । सास बेलने को चकले पर चलता देख , डर गई । वह भूत - भूत कहकर चीखती हुई भागी । भागते हुए उसने चौके की कुंडी लगा दी । गुणवंती हक्की - बक्की रह गई ।
अब चौके के बाहर कैसे निकले ? तभी ससुर ने चौके के किवाड़ खोलते हुए कहा - " कोई भूत प्रेत नहीं । तुम्हें बुखार की गरमी के कारण ऐसा लगा होगा । " इसी बीच गुणवंती चौके से निकल गई । पर कुछ देर बाद वह वस्त्र अंदर रखकर आई । उसने सास को खाट पर लिटा दिया । फिर भोजन बनाने रसोई में चली गई ।
उसने अपने हाथों से खाना बनाकर सबको खिलाया , तो सभी फिर से प्रसन्न हो गए । - - उस दिन खाना खाने के बाद पति ने पूछा ' आज तुमने फिर स्वादिष्ट खाना बना दिया । क्या हो जाता है तुम्हें ? माँ तो भूत से इतना डर गई है कि वह रसोई में जाती ही नहीं । तुम उस दिन कुछ बताने को कह रही थीं । क्या थी वह बात ? "
गुणवंती हंसकर बोली " चलो , माँ जी के पास चलकर सारा राज खोलती हूँ । उस दिन भूत भी मै ही थी । " इसके बाद गुणवंती ने शुरू से आखिर तक सारी बात बता दी । कहा - " परियों के कारण यह सब हुआ । " - सुनकर सास भी हँसने लगी । बोली " कहाँ हैं वह जादुई वस्त्र ? "
गुणवंती वस्त्र को कमरे में लेने गई , मगर वह तो पहले ही हवा में परियों उड़ चुका था । गुणवंती उसे उड़ता देखती रही । वह समझ गई उन परिओ ने जो कहा था , सच हुआ । मगर अब उसे चिंता नहीं थी । वह खाना बनाना जान गई थी ।