munshi premchand: विधवा पुत्रों के साथ मुंशी प्रेमचंद कहानी

 बेटन वाली विधवा (हिंदी कहानी): मुंशी प्रेमचंद जब पंडित अयोध्या नाथ की मृत्यु हुई तो सबने कहा, भगवान आदमी को ऐसी मौत दे।  चार जवान बेटे थे, एक लड़की।  चारों लड़कों की शादी हो चुकी थी, सिर्फ लड़की अविवाहित थी।  काफी संपत्ति भी बची थी।  एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार बीस हजार के गहने नगद।  विधवा फूलमती बहुत दिन तक दुःखी रही और तड़पती रही, पर अपने जवान पुत्रों को सामने देखकर उसे शान्ति मिली।


  चारों लड़के एक से बढ़कर एक विनम्र हैं, चारों बहुएँ एक से बढ़कर एक आज्ञाकारी हैं।  जब वह रात को लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके पैर दबाते;  नहाकर उठती तो अपनी साड़ी ठीक करती।  सारा घर उसके इशारे पर चलता था।  बड़ा लड़का कामतानाथ, एक कार्यालय में 50 रु।  लेकिन एक नौकर था


   छोटा उमानाथ, डॉक्टरेट पास कर चुका था और कहीं डिस्पेंसरी खोलने की सोच रहा था, तीसरे दयानाथ, बी.  मैं फेल हो गया था और पत्रिकाओं में लेख लिखकर कुछ न कुछ कमा लेता था, चौथा सीतानाथ चारों में सबसे बुद्धिमान और होनहार था और इस साल का बी.ए.  एक।  प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद एम.ए. की तैयारी में जुट गया था।


  किसी लड़के में वह लंपटता, वह ढिलाई, वह फिजूलखर्ची नहीं थी, जो माँ-बाप को जलाकर सम्पूर्ण मर्यादा को डुबा दे।  फूलमती घर की मालकिन थी।  चूँकि चाबियाँ बड़ी बहू के पास रखी हुई थीं - बुढ़िया के पास वह अधिकारपूर्ण प्रेम नहीं था, जो बड़ों को कटु और झगड़ालू बनाता है;


  लेकिन उनकी मर्जी के बिना कोई बच्चा मिठाई भी नहीं मांग सकता था।  शाम हो गयी।  आज बारहवां दिन था जब पंडित की मृत्यु हुई।  कल तेरही है।  ब्रह्मभोज होगा।  समुदाय के लोगों को आमंत्रित किया जाएगा।  उसी की तैयारी की जा रही थी।  फूलमती कोठरी में बैठी देख रही थी, पल्लेदार बोरियों में आटा ला रहा है।


  घी के टिन आ रहे हैं।  सब्जी की टोकरियाँ, चीनी की बोरियाँ, दही के बर्तन आ रहे हैं।  महापात्र के लिए दान लाए गए - बर्तन, कपड़े, बिस्तर, बिस्तर, छाता, जूते, लाठी, लालटेन आदि;  लेकिन फूलमती को कुछ नहीं दिखाया गया।  नियम के मुताबिक ये सारी चीजें उसके पास आनी चाहिए थीं।


  वह सब कुछ देखती है, उसे पसंद करती है, यह तय करती है कि उसकी मात्रा बढ़ानी है या घटानी है;  फिर ये चीजें स्टोर में रख दी जातीं।  उसे दिखाना और उसकी राय लेना क्यों जरूरी नहीं समझा?  अच्छा, वह आटा केवल तीन थैलियों में ही क्यों आया?  उसने पांच बोरी मांगी थी।  घी के केवल पाँच कनस्तर हैं।  उसने दस कनस्तर मंगवाए थे।


  इसी प्रकार सब्जी, शक्कर, दही आदि में भी कमी हो जाती। उनके आदेश में किसने हस्तक्षेप किया?  जब उसने एक बात तय कर ली है, तो उसे बढ़ाने या घटाने का अधिकार किसको है?  आज चालीस साल तक फूलमती की बात घर के हर मामले में सर्वमान्य रही।  सौ बोले तो सौ खर्च हुए, एक बोले तो एक।  किसी का मतलब नहीं था।  यहां तक ​​कि पं.  अयोध्या नाथ ने उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं किया;  लेकिन आज उनकी आंखों के सामने सीधे उनके आदेश की अनदेखी की जा रही है!


  वह इसे कैसे स्वीकार कर सकती थी?  कुछ देर के लिए वह बैठी रही;  लेकिन अंत में यह टिक नहीं पाया।  स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था।  वह क्रोध से भरी हुई आई और कामतानाथ से बोली- 'तू तीन बोरी आटा ही लाया था क्या?  मैंने तो पाँच बोरी माँगी थी और पाएँ पाँच ही डिब्बे घी!  तुमको याद है हमने दस कनस्तर बोला था?  मैं अर्थव्यवस्था को बुरा नहीं मानता;  लेकिन जिसने यह कुआं खोदा, उसकी आत्मा पानी के लिए तरसती है, यह शर्म की बात है!'

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  कामतानाथ ने न क्षमा मांगी, न अपनी भूल मानी, न लज्जित हुए।  वह एक मिनट तक डटकर खड़ा रहा, फिर बोला- 'हमें तीन बोरी ही सलाह दी गई थी और तीन बोरे के लिए पांच टिन घी काफी था।  इसी हिसाब से अन्य चीजों में भी कमी की गई है।

  फूलमती ने क्रोधित होकर कहा-'आटा किसकी राय से कम किया?'


  'हमारी राय से।'तो मेरी राय कोई चीज़ नहीं है?'क्यों नहीं;  लेकिन क्या हम अपना नफा-नुकसान समझते हैं?'  फूलमती आवेश में उसे देखने लगी।  उन्हें इस वाक्य का अर्थ समझ में नहीं आया।  आपका लाभ और हानि!  आप अपने घर में लाभ और हानि के लिए जिम्मेदार हैं।

बड़ी बहू ने अपनी सफाई देते हुए कहा- 'हमें क्या पता था कि इतना काम भी पत्नी (कुमुद) नहीं करेगी।  वह देखना चाहती थी कि वह सब्जियों को कड़ाही में डालेगी।  टोकरी उठाकर कढ़ाव मे डाल दी!  हमारी गलती क्या है!'  कामतानाथ ने अपनी पत्नी को डाँटा- 'न कुमुद का दोष है, न तुम्हारा, न मेरा।  संयोग की बात है।  बदनामी आंशिक रूप से लिखी गई थी,


   क्या हुआ।  इतने बड़े भोज में कड़ाही में एक-एक मुट्ठी सब्ज़ियाँ नहीं डाली जातीं!  टोकरे डालने के बाद टोकरे।  कई बार ऐसे हादसे हो जाते हैं।  लेकिन इसमें कैसी दुनिया-हंसी और कैसी नाक कटनी।  तुम हमेशा जले पर नमक छिड़कती हो!'


  फूलमती ने दाँत पीसते हुए कहा- 'तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम उलटी और अभद्र बातें करती हो।'

  कामतानाथ ने बिना हिचकिचाहट के कहा - 'शर्म क्यों करते हो, तुमने किसी का चोरी किया है?  शक्कर में चींटियाँ और आटे में घुन नहीं देखा जाता।  पहले तो हमने ध्यान नहीं दिया, बस इतना ही, यहां तो बात बिगड़ गई।  नहीं, वे चुपके से चूहे को बाहर फेंक देते।  इसकी जानकारी भी किसी को नहीं होगी।


  फूलमती हैरान होकर बोली- 'क्या कहता है, मरे हुए चूहे को खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता?'

  कामता हँसी और बोली- 'पुराने दिनों की बात कर रही हो अम्मा?  क्या धर्म इन बातों से नहीं गुजरता?  इन नेक लोगों में से कौन है, जो मुर्दों में से जी उठा है, भेड़-बकरी का मांस नहीं खाता?  तालाब के कछुए और घोंघे भी किसी से नहीं बचते।  एक छोटे से चूहे में क्या रखा था!'


  फूलमती को लगा कि अभी प्रलय आने में देर नहीं हुई है।  जब पढ़े-लिखे लोगों के मन में ऐसी अधार्मिक भावनाएँ आने लगें, तभी ईश्वर को धर्म की रक्षा करनी चाहिए।  वह अपना चेहरा लेकर चली गई।


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  2

  दो महीने बीत चुके हैं।  रात का समय है।  चारों भाई दिन भर के काम से फुर्सत पाकर कमरे में बैठे गपशप कर रहे हैं।  बड़ी बहू भी साजिश में शामिल है।  कुमुद के विवाह का प्रश्न छिड़ा हुआ है।


  कामतानाथ ने सहारा लेते हुए कहा - 'दादा के साथ दादा की बात चली गई।  पंडित विद्वान भी हैं और कुलीन भी होंगे।  लेकिन जो आदमी पैसे के लिए अपने ज्ञान और बड़प्पन को बेचता है, वह नीच है।  हम कुमुद की शादी ऐसे नीच आदमी के लड़के से एक पैसे के लिए भी नहीं करेंगे, पाँच हज़ार तो दूर।  उसे धाता कहो और दूसरे वर की तलाश करो।  हमारे पास कुल मिलाकर केवल बीस हजार हैं।


   सबके हिस्से में पांच हजार आते हैं।  दहेज में पांच हजार दो, और नकारात्मकता में पांच हजार खर्च करो, तो हमें बधिया कर दिया जाएगा।'

  उमानाथ ने कहा - 'मुझे अपना औषधालय खोलने के लिए कम से कम पाँच हजार चाहिए।  मैं अपने हिस्से से एक पाई भी नहीं दे सकता।  फिर खुलते ही कोई इनकम नहीं होगी।  कम से कम पूरे साल तो हमें घर का खाना ही पड़ेगा।


  दयानाथ अखबार देख रहे थे।  आँखों पर से चश्मा उतारते हुए बोले - 'मेरे मन में भी एक चिट्ठी निकालने का विचार आया है।  प्रेस और पत्र में कम से कम दस हजार की पूंजी चाहिए।  अगर पांच हजार मेरे पास रह गए तो कोई न कोई साथी मिल ही जाएगा।  मैं अखबारों में लेख लिखकर जीवित नहीं रह सकता।'

  कामतानाथ ने सिर हिलाया और कहा- 'अजी, राम की पूजा करो, सेंट में कोई लेख नहीं छापता, पैसा कौन देता है।'


  दयानाथ ने प्रतिवाद किया- 'नहीं, ऐसी बात नहीं है।  बिना एडवांस अवॉर्ड लिए मैं कहीं नहीं लिखता.'  कामता ने मानो अपनी बात वापस ले ली - 'मैं तेरी बात नहीं कहता भाई।  तुम थोड़ा मारो, लेकिन हर किसी को नहीं मिलता।'


  बड़ी बहू ने श्रद्धा से कहा- 'लड़की के नसीब में तो वह गरीब घर में भी सुखी रह सकती है।  अभागी होगी तो राजा के घर में भी रोएगी।  यह सब किस्मत का खेल है।  कामतानाथ ने उस स्त्री की ओर प्रशंसा भरी दृष्टि से देखा - 'तो फिर इसी वर्ष हमें सीता का भी विवाह करना है।'


  सीतानाथ सबसे छोटा था।  सिर झुकाए भाइयों की स्वार्थी बातें सुनकर कुछ कहने को अधीर हो रहा था।  अपना नाम सुनते ही उन्होंने कहा- 'आप लोग मेरे विवाह की चिन्ता न करें।  जब तक मैं किसी धंधे में न लगूं, तब तक विवाह का नाम भी न लूंगी;  और सच कहूं तो मैं शादी नहीं करना चाहता।  देश को इस समय बच्चों की नहीं, कामगारों की जरूरत है।


   तुम मेरे हिस्से का पैसा कुमुद की शादी में खर्च करो।  सारी बातें तय हो जाने के बाद पंडित मुरारीलाल से रिश्ता तोड़ना उचित नहीं है।  उमा ने ऊँचे स्वर में कहा-'दस हजार कहाँ से आयेंगे?'


  सीता ने डरते हुए कहा - 'मैं अपने हिस्से का पैसा माँगती हूँ।'  और बाकी?  'मुरारीलाल को दहेज को थोड़ा कम करने के लिए कहा जाना चाहिए।  वे इतने स्वार्थी नहीं हैं कि इस मौके पर ज़बरदस्ती खाने को तैयार न हों, अगर तीन हज़ार में संतुष्ट हो जाएँ तो पाँच हज़ार में शादी हो सकती है।


  उमा ने कामतानाथ से कहा- 'आइए उनकी बातें सुनें भाई।'  दयानाथ बोले- 'तो इसमें तुम लोगों का क्या नुकसान है?  मुझे खुशी है कि हममें से कम से कम एक त्याग करने में सक्षम है।  उन्हें तुरंत पैसों की जरूरत नहीं है।  उन्हें सरकार से वजीफा मिलता है।  पास हो गए तो कहीं ठिकाना मिल जाएगा।  हमारी हालत ऐसी नहीं है।


  कामतानाथ ने दूरदर्शिता का परिचय दिया - 'हानि का एक ही शब्द है'।  अगर हममें से एक मुसीबत में है, तो क्या दूसरे लोग बैठकर देखेंगे?  ये तो अभी लड़के हैं, इन्हें क्या पता, कभी-कभी एक रुपया लाख का काम करता है।  क्या पता कल उसे विदेश में पढ़ने या सिविल सेवा में जाने के लिए सरकारी छात्रवृत्ति मिल जाए।  उस समय यात्रा की तैयारियों में चार से पांच हजार खर्च होंगे।


 तब किसके सामने हाथ फैलाते फिरेंगे?  मैं नहीं चाहती कि दहेज की वजह से उनकी जिंदगी बर्बाद हो.'  इस तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ दिया।  झिझकते हुए बोले- 'हां, अगर ऐसा हो जाए तो बेशक मुझे पैसों की जरूरत पड़ेगी।'

  'क्या ऐसा होना असंभव है?


  मैं इसे असंभव नहीं मानता;  लेकिन कठिन अवश्य है।  वजीफा उन्हें दिया जाता है जिनके पास सिफारिशें हैं, जो मुझसे पूछते हैं।

  'कभी-कभी सिफारिशें अटक जाती हैं और बिना सिफारिशों के कटौती हो जाती है।'

  'फिर जैसा तुम ठीक समझो वैसा करो।  मैं विदेश न जाऊं तो भी मान लेता हूं;  लेकिन कुमुद को अच्छे घर जाना चाहिए।


  कामतानाथ ने भक्ति भाव से कहा- 'भैया, सिर्फ दहेज देने से अच्छा घर नहीं मिल जाता!  जैसा आपकी भाभी ने कहा, यह किस्मत का खेल है।  मैं चाहता हूं कि मुरारीलाल को जवाब दिया जाए और ऐसा घर ढूंढा जाए, जो थोड़ा मान जाए।  मैं इस शादी में एक हजार से ज्यादा खर्च नहीं कर सकता।


  पंडित दीनदयाल कैसे हैं?

  उमा ने प्रसन्न होकर कहा- 'बहुत अच्छा।  एम.ए., बी.ए.  ठीक नहीं, यजमानों से अच्छी आय होती है।

  दयानाथ ने आपत्ति की - 'तुम्हें अपनी माँ से भी पूछना चाहिए।'  कामतानाथ ने इसकी कोई आवश्यकता नहीं समझी।  कहा- 'ऐसा लगता है कि इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।  वही पुराने युग की बातें!  मुरारीलाल के नाम पर उधार लिया।


  वह नहीं समझती कि वह जमाना अब नहीं रहा।  उनके लिए कुमुद मुरारी पंडित के घर जाना ही काफी है, भले ही हम तबाह हो जाएं।'  उमा ने शंका उठाई- 'अम्मा अपने सारे गहने कुमुद को दे देंगी, देखते हैं।'  कामतानाथ का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका।  कहा- 'गहने पर उसका पूरा हक है।  यह उनका स्त्रीधन है।  आप जिसे चाहें उसे दे सकते हैं।


  उमा ने कहा- 'यदि उसके पास स्त्रियों का धन है, तो क्या वह उसे लूट लेगी?  आखिर वह भी तो दादाजी की ही कमाई है.'

  किसी की कमाई।  स्त्रीधन पर उनका पूरा अधिकार है!'  ये कानूनी घोटाले हैं।  बीस हज़ार में चार हिस्सेदार हों और दस हज़ार के गहने अम्मा के पास रह जाएँ।  देखिए, इन्हीं के आधार पर वह कुमुद की शादी मुरारी पंडित के घर करवा देगी।'

उमानाथ इतनी बड़ी रकम इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकते।  वह छल कपट में निपुण होता है।  कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा।  तब तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं है।  कामतानाथ ने सिर हिलाया और कहा- 'भाई, मुझे ये चालें अच्छी नहीं लगतीं।'


  उमानाथ ने खिलखिलाकर कहा-'आभूषण दस हजार से कम न होंगे।'  कामता ने अविचलित स्वर में कहा-'कितने भी हों;  मैं अधर्म में लिप्त नहीं होना चाहता।'  इसलिए आप अलग बैठें।  हां, अपनी भतीजी को बीच में मत मारो।  'मैं दूर रहूंगा।' और तुम सीता?  'मैं दूर रहूंगा।'


  लेकिन जब यही प्रश्न दयानाथ से पूछा गया तो वे उमानाथ के साथ सहयोग करने को तैयार हो गए।  दस हजार में से ढाई हजार उसके होने चाहिए।  इतनी बड़ी रकम के लिए अगर कुछ हुनर ​​करना पड़े तो क्षम्य है।


  3

  फूलमती रात के खाने के बाद लेटी हुई थी कि उमा और दया उसके पास जाकर बैठ गईं।  दोनों ऐसा मुंह बना रहे थे, मानो कोई बड़ी विपत्ति आ गई हो।  फूलमती ने संदेह से पूछा - 'तुम दोनों घबराई हुई लग रही हो?'


  उमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-'अखबारों में लेख लिखना बड़ा जोखिम भरा काम है, अम्मा!  कितना भी कम लिखो कहीं न कहीं पकड़ में आ ही जाता है।  दयानाथ ने एक लेख लिखा था।  उन पर पांच हजार की जमानत मांगी गई है।


  अगर कल तक जमानत नहीं हुई तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा और दस साल की सजा काट ली जाएगी।'

  फूलमती ने सिर पीटते हुए कहा-'बेटा, तुम ऐसी बातें क्यों लिखते हो?  जानते नहीं हो, आजकल हमारे अदिन आए हुए हैं।  क्या जमानत किसी तरह टल नहीं सकती?


  दयानाथ ने दोषी भाव से उत्तर दिया-'अम्मा, मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा था;  लेकिन किस्मत को क्या करूँ।  जिलाधिकारी इतने सख्त हैं कि कोई रियायत नहीं देते।  मैं जितना भाग सकता था भागा।'

  'तो तुमने कामता से पैसे की व्यवस्था करने के लिए नहीं कहा?'


  उमा ने मुंह बनाया - 'तू तो उसका स्वभाव जानती है अम्मा, उसे पैसे प्राणों से भी प्यारे हैं।  चाहे वह काला पानी हो जाए, वह एक पाई भी नहीं देगा।'  दयानाथ ने समर्थन किया- 'मैंने उनसे इसका जिक्र तक नहीं किया।'  फूलमती खाट से उठी और बोली- 'चलो, मैं कहती हूँ, वह कैसे नहीं देगा?  क्या यह पैसा इस दिन के लिए है या दफनाने के लिए है?'


  उमानाथ ने माँ को रोकते हुए कहा- 'नहीं माँ, इसे कुछ मत कहना।  पैसा नहीं देंगे, उल्टा करेंगे और हो-हल्ला मचाएंगे।  उन्हें अपनी नौकरी की सलामती का जश्न मनाना होगा, उन्हें घर में रहने की भी इजाजत नहीं होगी.  अगर वह अधिकारियों को सूचित कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा.'

  फूलमती ने बेबसी से कहा-'फिर जमानत का क्या इंतजाम करोगी?  मेरे पास कुछ नहीं है।  हाँ मेरे पास गहने हैं


  ले जाओ, कहीं रख दो और जमानत दे दो।  और आज से कान पकड़ लेना कि तुम किसी भी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।'  दयानाथ ने कानों पर हाथ रखकर कहा-'अम्मा, यह संभव नहीं है कि मैं आपके आभूषण लेकर अपनी जान बचा सकूं।  दस-पांच साल की कैद होगी, मैं झेल लूंगा।  मैं यहाँ बैठकर क्या कर रहा हूँ?'


  फूलमती ने छाती पीटते हुए कहा-'कैसी बातें करते हो बेटा, मेरे जीते जी तुम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है!  मैं उसका मुँह जला दूँगा।  अलंकार इस दिन के लिए हैं या किसी और दिन के लिए!  जब तुम नहीं होगे, तो क्या मैं अपने आप को गहनों के साथ आग में झोंक दूँगा!'


  उसने उस पिटारी को लाकर उसके सम्मुख रख दिया।  दया ने याचना भरी निगाहों से उमा की ओर देखा और बोलीं- 'क्या राय है भाई?  इसलिए मैं कहता था, अम्मा को बताने की जरूरत नहीं है।  जेल होती या कुछ और?'  सिफारिश करते हुए उमा ने कहा- 'ऐसा कैसे हो सकता है कि इतनी बड़ी घटना हो गई होगी और अम्मा को इसकी भनक तक नहीं लगी होगी।

मेरे साथ ऐसा न हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल लेता;  लेकिन अब मैं खुद तय नहीं कर सकता कि मुझे क्या करना है।  न तो अच्छा है कि तुम जेल जाओ और न यह अच्छा है कि अम्मा के गहने पतझड़ में ही रखे रहें।'

  फूलमती ने व्यथित स्वर में पूछा- 'समझती हो, मुझे तुमसे अधिक गहनों से प्रेम है?  मैं तुम्हारे लिए जान भी कुर्बान कर दूंगा, गहनों का डिब्बा क्या है।'


  दया ने दृढ़ता से कहा- 'अम्मा, मैं आपके गहने नहीं लूंगा, भले ही मुझे कुछ हो जाए।  जब मैं आज तक आपकी सेवा नहीं कर सका, तो मैं किस मुख से आपके आभूषण उतार दूं?  मुझ जैसे कपूत को तेरी कोख से जन्म नहीं लेना चाहिए था।  आपको हमेशा परेशान करता रहा।


  फूलमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा- 'यदि आप इसे इस तरह नहीं लेते हैं, तो मैं खुद जाकर उन्हें नीचे रख दूंगी और मैं खुद जिलाधिकारी के पास जाकर जमानत ले लूंगी;  तुम चाहो तो यह परीक्षा भी लो।  भगवान जाने मेरे आंख बंद करने के बाद क्या होगा, लेकिन जब तक मैं जिंदा हूं, कोई तुम्हें तिरछी नजर से नहीं देख सकता।'

  मानो उमानाथ ने माता पर कोई उपकार किया हो, उसने कहा- अब तेरा कोई उपाय नहीं दयानाथ।  क्या गलत है


  लेना;  लेकिन याद रखें, जैसे ही पैसा हाथ में आएगा, आपको गहनों से छुटकारा पाना होगा।  सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है।  इतना प्यार एक माँ के सिवा और कौन दिखा सकता है?  हम बड़े दुर्भाग्यशाली हैं कि हम अपनी माँ के प्रति जो सम्मान होना चाहिए उसका 100% भी नहीं रखते हैं।


  मानो किसी बड़े धर्म संकट में पड़कर दोनों ने गहनों के डिब्बे को सम्भाला और चलने लगीं।  माँ उन्हें प्रेम भरी निगाहों से देख रही थी और अपने सम्पूर्ण प्राणों के आशीर्वाद से उन्हें गोद में लेने को व्याकुल मालूम हो रही थी।


  आज कई महीनों के बाद अपनी टूटी हुई माँ के हृदय को सब कुछ अर्पण कर मानो आनन्द का वैभव पा लिया हो।  उसकी स्वामिनी कल्पना इस त्याग का, इस समर्पण का मार्ग खोजती थी।  अधिकार या लोभ या मोह की गंध तक नहीं थी।  बलिदान उसका आनंद है और बलिदान उसका अधिकार है।  आज वह अपना खोया हुआ अधिकार पाकर अपने द्वारा बनाई गई प्रतिमा पर प्राणों की आहुति देकर आनंदित हो उठी।


  4

  तीन महीने और बीत गए।  माता के आभूषणों पर हाथ फेरकर चारों भाई उसे प्रणाम करने लगे।  वह अपनी महिलाओं को भी समझाता था कि उसका दिल मत दुखाना।  अगर थोड़ी सी शिष्टता से उसकी आत्मा को शांति मिल जाती है तो इसमें हर्ज ही क्या है।  चारों जो चाहते वही करते, लेकिन अपनी माँ से सलाह लेते या ऐसा जाल बिछाते कि वह आसानी से उनकी बातों में आ जाती और हर काम में मान जाती।


  उसे बाग बेचने में बहुत बुरा लगा;  पर चारों ने ऐसा भ्रम पैदा किया कि वह उसे बेचने को राजी हो गई, लेकिन कुमुद के विवाह के लिए राजी न हो सकी।  मां पं. मुरारीलाल पर फिदा थीं, लड़के दीनदयाल पर अड़े थे।  एक दिन आपस में झगड़ा हो गया।


  फूलमती ने कहा- मां-बाप की कमाई में बेटी का भी हिस्सा होता है.  सोलह हजार में बाग मिला, पच्चीस हजार में घर।  क्या बीस हज़ार में से पाँच हज़ार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है?


  कामता ने विनम्रता से कहा- अम्मा, कुमुद तुम्हारी बेटी है, तो हमारी बहन है।  दो-चार साल में तुम चले जाओगे;  लेकिन हमारा और उनका रिश्ता लंबे समय तक रहेगा।  तब जहाँ तक हो सके हम ऐसा काम नहीं करेंगे, जिससे उसका अपयश हो;  लेकिन अगर शेयर की बात करें तो कुमुद के हिस्से कुछ भी नहीं है।  दादा जीवित थे, तब बात अलग थी।


  वह उसके विवाह में जितना चाहते, खर्च करते।  कोई उसका हाथ नहीं पकड़ सकता था;  लेकिन अब हमें एक-एक पैसा बचाना है।  जो काम हज़ार में हो उसके लिए पाँच हज़ार ख़र्च करने की बुद्धिमानी कहाँ है?

  उमानाथ ने ठीक किया - पांच हजार क्यों, दस हजार कहो।


  कामता ने भौहें चढ़ाकर कहा- नहीं, मैं तो पाँच हजार ही कहूँगा;  हम शादी में पांच हजार खर्च नहीं कर सकते।

  फूलमती जिद पर अड़ी रही - वह मुरारीलाल के बेटे से ही शादी करेगी, चाहे उसकी कीमत पांच हजार हो या दस हजार।  मेरे पति कमा रहे हैं।  मैं मर कर शामिल हुआ हूं।  मैं अपनी इच्छा के अनुसार खर्च करूंगा।

तुमने मेरे गर्भ से जन्म नहीं लिया है।  कुमुद भी उसी कोख से उत्पन्न हुई थी। मेरी दृष्टि में तुम सब समान हो।  मैं किसी से कुछ नहीं माँगता।  तुम बैठकर तमाशा देखो, मैं सब कुछ करूंगा।  बीस हजार में से पांच हजार कुमुद के हैं।


  कामतानाथ के पास अब कड़वे सच की शरण लेने के अलावा और कोई चारा नहीं था।  बोले- अम्मा, तुम बात बढ़ाती रहो।  जिस धन को तुम अपना समझते हो वह तुम्हारा नहीं है;  आप हमारी अनुमति के बिना उनमें से कोई भी खर्च नहीं कर सकते।


  फूलमती को साँप ने डसा-क्या कहा!  तो यह कहो!  मैं अपनी इच्छानुसार अपना पैसा खर्च नहीं कर सकता?

  'वह पैसा अब तुम्हारा नहीं है, यह हमारा है।'

  'तुम्हारा होगा;  लेकिन मेरे मरने के बाद।

  'नहीं, दादा के मरते ही यह हमारा हो गया!'

  उमानाथ ने बेशर्मी से कहा- अम्मा, उसे तो कायदे-कानून का पता ही नहीं है, वह फालतू ही कूद पड़ती है।


  फूलमती गुस्से से चिल्ला उठी और बोली- भाड़ में जाए तेरा कानून।  मैं ऐसा कानून नहीं जानता।  तुम्हारे दादा ऐसे धन्नासेठ नहीं थे।  पेट और बदन काट कर इस घर में शामिल हुआ हूँ, वरना आज बैठने को छाँव न मिलती!  मेरे जीवित रहते तुम मेरे धन को छू नहीं सकते।  मैंने तीन भाइयों की शादी में दस-दस हजार खर्च किए हैं।  वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।


  कामतानाथ को भी गुस्सा आया - 'तुम्हें कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।'  उमानाथ ने बड़े भाई को फटकारा- 'भाई, तुम खामखवाह अम्मा जैसी लगती हो!  मुरारीलाल को पत्र लिखिए कि कुमुद का विवाह आपके यहां नहीं होगा।  बस, छुट्टी का दिन है।  वह नियमों और विनियमों को नहीं जानती, वह व्यर्थ बहस करती है।


  फूलमती ने संयमित स्वर में कहा- 'अच्छा, क्या कानून है, मैं भी सुन लूँ।'  उमा ने मासूमियत से कहा - 'कानून यह है कि पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति बेटों के पास जाती है।  माँ का अधिकार केवल रोटी और कपड़े पर है।  फूलमती ने व्यथित होकर पूछा- 'यह कानून किसने बनाया है?'


  उमा शांत और स्थिर स्वर में बोलीं - 'हमारे ऋषि, महाराज मनु, और कौन?'  फूलमती एक क्षण अवाक रह गई और आहत स्वर में बोली- 'तो क्या मैं इस घर में तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हूँ?'  जज की निष्ठुरता पर उमानाथ ने कहा- 'जैसा चाहो समझ लो।'


  इस वज्रपात से मानो फूलमती की सारी आत्मा चीख उठी।  उसके मुख से जलती चिंगारी की तरह ये शब्द निकले- 'मैंने घर बनाया, मैंने संपत्ति जोड़ी, मैंने तुम्हें जन्म दिया, तुम्हें पाला और आज मैं इस घर में पराया हूं?  क्या यही मनु का विधान है?  और आप उसी कानून का पालन करना चाहते हैं?  यह एक अच्छी चीज़ है।  अपना दरवाजा लो।


  मैं तुम्हारे आश्रित होकर रहना स्वीकार नहीं करता।  इससे तो मर जाना अच्छा है।  वाह रे अंधेर!  मैंने पेड़ लगाया और मैं उसकी छाया के नीचे खड़ा नहीं हो सकता;  अगर यही कानून है तो इसे आग लगा देनी चाहिए.'  मां के इस गुस्से और आतंक का चारों युवकों पर कोई असर नहीं हुआ।  कानून का फौलादी कवच ​​उनकी रक्षा कर रहा था।  इन कांटों का उस पर क्या असर हो सकता था?

  जरा देर में फूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसका ममतामयी मातृत्व उसे श्राप की तरह कोसने लगा।  जिस मातृत्व को उसने जीवन का प्रतीक समझा था, जिसके चरणों में वह सदा अपनी समस्त कामनाओं और कामनाओं को न्यौछावर कर अपने को धन्य मानती थी, आज वही मातृत्व उसे आग के कुण्ड के समान प्रतीत हो रहा था, जिसमें उसका जीवन जलकर राख हो गया।


  शाम हो गयी।  द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाए निश्चल खड़ा है, मानो संसार की गति से चिढ़ रहा हो।  अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन के देवता फूलवती की ममता की तरह उनकी चिता में जल रहे थे।



  5

  जब फूलमती अपने कमरे में जाकर लेट गई तो उसे पता चला कि उसकी कमर की हड्डी टूट गई है।  पति के मरते ही उसके पेट के लड़के उसके दुश्मन बन जाएँगे, उसने सपने में भी नहीं सोचा था।  जिन लड़कों को उसने अपना कलेजा और खून पिलाकर पाला था, आज उसका दिल ऐसे दुखा रहे हैं!  अब वह घर उसके लिए कांटों का घेरा बनता जा रहा था।


  अनाथ की तरह पड़ी रोटी खाना उसके अहंकारी स्वभाव के लिए असह्य था जहाँ उसका सम्मान नहीं, गिनती नहीं।  लेकिन उपाय क्या था?  लड़को से दूर भी रहे तो किसकी नाक कटेगी !  दुनिया थूके तो क्या, और लड़के थूकें तो क्या;  ग्लानि उसी की है।


  दुनिया तो यही कहेगी कि चार जवान बेटों के साथ बुढ़िया मजदूरी करके अलग रह रही है।  जिन्हें उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर हँसेंगे।  नहीं, वह अपमान इस अपमान से कहीं अधिक हृदय विदारक था।


  अब वह खुद को और अपने घर को ढक कर रखने में दक्ष है।  हां, अब उसे खुद को नई परिस्थितियों के अनुकूल ढालना होगा।  समय बदल गया है।  अब तक रखैल बनकर रही, अब गुलाम बनकर रहना पड़ेगा।  यह ईश्वर की इच्छा है।  परायों की मार-पिटाई की तुलना में आपके पुत्रों की बातें और लात-घूसे आज भी गर्व का विषय हैं।


  वह बहुत देर तक अपना चेहरा ढक कर रोती रही।  पूरी रात इसी आत्मग्लानि में कटी।  उषा की गोद से डरते-डरते शरद का प्रभाव ऐसे निकल पड़ा, मानो कोई बंदी जेल से छिपकर भाग गया हो।  फूलमती अपने नियम के विरुद्ध आज जल्दी उठ गई, रातों-रात उसका मन बदल गया था।  पूरा घर सो रहा था और वह आंगन में झाडू लगा रही थी।


  कंक्रीट का फर्श, जो रात भर ओस में भीगा हुआ था, उसके नंगे पाँवों में काँटों की तरह चुभ रहा था।  पंडित जी ने उन्हें इतनी जल्दी कभी उठने नहीं दिया।  शीत उसके लिए बहुत हानिकारक था।  लेकिन वे दिन अब नहीं रहे।  प्रकृति समय के साथ उसे भी बदलने की कोशिश कर रही थी।  झाडू से छूटकर आग जलाई और दाल-चावल के कंकड़ चुनने लगी।


  कुछ देर में लड़के जागे।  बहुएं उठ गईं।  सभी ने बुढ़िया को ठंड से सिकुड कर काम करते देखा;  लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि अम्मा, आप सिर क्यों चकरा रही हैं?  बुढ़िया के इस सम्मान से शायद सभी खुश थे।


  आज के बाद से फूलमती का नियम बन गया है कि वह घर में खूब मेहनत करती है और अंतरंग नीति से दूर रहती है।  उनके चेहरे पर जो स्वाभिमान झलकता था, उसकी जगह अब गहरी पीड़ा ने ले ली थी।  जहां कभी बिजली जलती थी, वहां अब एक तेल का दीपक टिमटिमाता था, जो हवा के हल्के झोंके से बुझ जाता था।

मुरारीलाल को इनकार पत्र लिखने की बात पक्की हो गई।  पत्र अगले दिन लिखा गया था।  दीनदयाल से कुमुद की शादी तय हो गई थी।  दीनदयाल की उम्र चालीस से थोड़ी अधिक थी, मर्यादा में भी थोड़े हठी थे, पर रोटी-दाल से ही मस्त रहते थे।  बिना किसी झिझक के शादी के लिए राजी हो गए।  तारीख तय हुई, बारात आई, ब्याह हुआ और कुमुद बीड़ा गई


  कौन जान सकता है कि फूलमती के हृदय में क्या चल रहा था;  लेकिन चारों भाई बहुत खुश थे, मानो उनके दिल का कांटा निकल गया हो।  ऊँचे कुल की कन्या, मुँह कैसे खोलती?  सुख भोगने के लिए भाग्य में लिखा होगा, सुख भोगोगे;  सहना लिखा होगा, भुगतना होगा।  हरि इच्छा है लाचारों का अंतिम सहारा।  जिसके साथ घर वालों ने ब्याह किया, चाहे उसके हजार दोष हों, वह तो उसका उपासक है, उसका स्वामी है।  प्रतिरोध उसकी कल्पना से परे था।


  फूलमती किसी भी काम में दखल नहीं देती थी।  कुमुद को क्या दिया, मेहमानों का कैसा सत्कार किया, किसके यहाँ से क्या निमंत्रण आया, उसे किसी बात की परवाह नहीं थी।  जब उनसे कुछ सलाह ली गई तब भी उन्होंने कहा- 'बेटा, तुम जो करते हो अच्छा करते हो।  तुम मुझसे क्या पूछते हो!'


  जब कुमुद के लिए डोली दरवाजे पर पहुंची और कुमुद मां से लिपट कर रोने लगी तो वह बेटी को अपनी कोठरी में ले गई और जो कुछ सौ पचास रुपये और उसके पास बचे दो-चार छोटे गहने बेटी की गोद में रख दिए।  वह बोली- 'बेटी, मन तो मन ही मन रह गया, नहीं तो आज तेरा विवाह इसी प्रकार होता और तुझे ऐसे ही विदा किया जाता!'


  आज तक फूलमती ने अपने गहनों के बारे में किसी को नहीं बताया था।  लड़कों ने उसके साथ जो कपट किया था, वह भले ही अब तक न समझ पाई हो, पर वह जानती थी कि गहने फिर नहीं मिलेंगे और मोह बढ़ाने के सिवाय और कुछ नहीं होगा;


  लेकिन इस मौके पर उन्होंने अपना स्पष्टीकरण देने की जरूरत महसूस की।  कुमुद को यह भाव मन में रखना चाहिए कि माँ ने बहू के लिए अपने गहने छोड़े, यह उसे किसी प्रकार सहन न हुआ,


  इसलिए वह उसे अपने सेल में ले गई।  लेकिन कुमुद पहले ही यह हुनर ​​सीख चुकी थी;  उसने गोदी में से गहने और पैसे निकाल कर माता के चरणों में रख दिए और बोली- 'माँ, मेरे लिए तो लाखों रुपये के आशीर्वाद हैं।  तुम इन चीजों को अपने पास रखो।  न जाने अब तुम्हें किन विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा।'


  फूलमती कुछ कहना चाहती थी कि उमानाथ ने आकर कहा- 'कुमुद क्या कर रही है?  चलो, जल्दी करो पल टल रहा है।  वो लोग हाय-हाय कर रहे हैं, तो वो दो-चार महीने में ज़रूर आएगी, जो करना है ले लो.'

  यह फूलमती के घाव पर नमक छिड़कने जैसा था।  वह बोली- 'अब मेरे पास क्या है भाई, क्या दूंगी?  जाओ बिटिया, भगवान तुम्हारे प्यार को अमर करे।  कुमुद चली गई।  फूलमती दबकर गिर पड़ी।  जीवन की लालसा गायब हो गई है।

 6

  एक साल बीत गया।  फूलमती का कमरा घर के सभी कमरों से बड़ा और हवादार था।  कई महीनों तक उसने उसे अपनी बड़ी बहू के लिए खाली कर दिया था और खुद एक छोटी सी कोठरी में भिखारी की तरह रहने लगी थी।  उसे अब बेटे-बहुओं से कोई लगाव नहीं था, वह अब घर की नौकरानी थी।  उसे घर के किसी जानवर, किसी वस्तु, किसी आयोजन में कोई दिलचस्पी नहीं थी।


  वह इसलिए जीती थी कि मौत नहीं आई।  अब उसे सुख-दुःख का ज्ञान नहीं था।  उमानाथ की दवाखाना खुला था, दोस्तों की दावत थी, नाच-गाना चल रहा था।  दयानाथ का प्रेस खुला, फिर सभा हुई।  सीतानाथ छात्रवृत्ति पाकर विदेश चले गए, तब उत्सव हुआ।  कामतानाथ के ज्येष्ठ पुत्र का यज्ञ हुआ, तब बड़ी धूमधाम हुई;  लेकिन फूलमती के चेहरे पर खुशी की छाया तक नहीं थी।  कामताप्रसाद एक महीने से टाइफाइड से बीमार थे और उनकी मौत हो गई।


  दयानाथ ने वास्तव में अपने पत्र का प्रचार प्रसार करने के लिए एक आपत्तिजनक लेख लिखा था और उन्हें छह महीने की सजा सुनाई गई थी।  उमानाथ ने एक फौजदारी मुकदमे में घूस लेकर गलत रिपोर्ट लिख दी और उसकी सनद ले ली गई;  लेकिन फूलमती के चेहरे पर दुख की छाया तक नहीं थी।  उसके जीवन में अब न कोई उम्मीद थी, न कोई दिलचस्पी, न कोई चिंता।  जानवरों की तरह काम करना और खाना, यही उसके जीवन के दो काम थे।


  जानवर मारने का काम करता है;  लेकिन दिल से खाता है।  फूलमती अकारण काम करती थी;  लेकिन वह निवाला विष की तरह खाती थी।  महीनों तक सिर पर तेल नहीं गिरता, महीनों कपड़े नहीं धुलते, परवाह नहीं।  बेहोश हो गया था।


  मानसून की आंधी थी।  मलेरिया फैल रहा था।  आसमान में गंदे बादल थे, जमीन पर गंदा पानी।  आर्द्र वायु सर्द-बुखार और श्वास-प्रश्वास बांटती रहती थी।  घर की मालकिन बीमार पड़ गई।  फूलमती ने घर के सारे बर्तन धोए, पानी में भीग कर सब काम किया।  फिर आग जलाकर बर्तनों को चूल्हे पर रख दें।


  लड़कों को समय पर भोजन मिलना चाहिए।  अचानक उसे याद आया, कामतानाथ नल का पानी नहीं पीते।  उसी वर्षा में गंगाजल लाने चली।

  कामतानाथ ने पलंग पर लेटे हुए कहा- 'रहने दो माँ, मैं पानी लाता हूँ, आज महरी बहुत बैठी है।'


  फूलमती ने मटमैले आकाश की ओर देखा और कहा- 'तुम भीग जाओगे बेटा, ठंडी हो जाएगी।'

  कामतानाथ ने कहा - 'तुम भी भीग रहे हो।  बीमार मत पड़ो।'  फूलमती ने निर्दयता से कहा - 'मैं बीमार नहीं पड़ूंगी।  भगवान ने मुझे अमर बना दिया है।


  उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था।  उनकी डिस्पेंसरी में कोई आय नहीं थी, इसलिए वे बहुत चिंतित थे।  वह अपने भाइयों और बहनों के चेहरे देखा करता था।  कहा- 'जाने दो भाई!  उसने अपनी बहुओं पर बहुत समय तक शासन किया है, उसे प्रायश्चित करने दो।'  गंगा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो।  क्षितिज के सामने के कूल से मिला हुआ था।


  केवल किनारे के पेड़ों की कलियाँ पानी के ऊपर रह गईं।  घाट ऊपर तक पानी में डूबे रहे।  फूलमती घड़ा लेकर नीचे उतरी, उसमें पानी भरकर ऊपर जा रही थी कि उसका पैर फिसल गया।  सँभल न सकी।  पानी में गिर गया।  उसने एक क्षण के लिए अपने हाथ-पैर हिलाए, फिर लहरों ने उसे नीचे खींच लिया।


  किनारे पर पंडों का जोड़ा चिल्लाया- 'अरे भागो, बुढ़िया डूब रही है।'  दो-चार आदमी दौड़े लेकिन फूलमती लहरों में, उन प्रचंड लहरों में समा गई, जिसे देखकर दिल काँप उठा।  एक ने पूछा - 'यह बुढ़िया कौन थी?'

  'अरे, वह पंडित अयोध्या नाथ की विधवा है।'


  अयोध्या नाथ बड़े आदमी थे?  हां, था, लेकिन ठोकर खाना उसकी किस्मत में लिखा था।  ' उसके कई बड़े बेटे हैं और सब कमाते हैं?  'हाँ, सब भाई हैं;  लेकिन किस्मत भी कोई चीज होती है!'

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