बात देहरादून की है । वैलहम स्कूल के पीछे धसिया धोबी अपने परिवार के साथ रहता था । उसके घर के सामने बहुत बड़ा मैदान था । मैदान के आगे एक छोटी - सी नदी बहती थी । उसी नदी में घसिया कपड़े धोता और सुखाने के लिए मैदान में फैला देता ।
घर के पास ही घसिया ने एक बड़ा - सा पत्थर रखा हुआ था । इसी पत्थर पर पटककर वह कपड़े धोता था । पत्थर नीचे से गोल था । ऊपर सतह चपटी थी । भारी इतना था कि दस - बारह आदमियों की मदद से घसिया उसे नदी से लाया था । एक दिन कोई अंगरेज घसिया के घर के पास से जा रहा था ।
अचानक उस पत्थर को देखकर रुक गया । फिर पास जाकर उसे छूकर और हिलाकर बहुत देर तक देखता रहा । घसिया उस समय बरामदे में बैठा , यह सब देख रहा था । अंगरेज ने घसिया को इशारे से अपने पास बुलाया । उस पत्थर के बारे में पूछा । घसिया ने बताया कि वह पत्थर उसके कपड़े धोने के काम के लिए रखा है ।
यह सुन , अंगरेज ने घसिया से कहा- " तुम काम के लिए कोई दूसरा पत्थर लगा लो । यह पत्थर मुझे दे दो । इसके बदले में , मैं तुम्हें कुछ रुपए दे दूंगा । " " घसिया धोबी अचकचा गया । इस बारे में कोई निर्णय न ले सका । उसने यह कहकर अंगरेज को विदा कर दिया कि वह अपनी पत्नी से पूछकर बताएगा ।
दो दिन बाद वह अंगरेज फिर घसिया के घर पहुँचा । उस समय घसिया घर पर नहीं था । केवल उसका लड़का और पत्नी ही थे । अंगरेज ने घसिया की पत्नी को उस पत्थर के विषय में बताया । कहा कि वह उन्हें उस पत्थर के बदले दो सौ रुपए तक दे देगा । यह सुन , घसिया की पत्नी सोच में पड़ गई ।
एक मामूली - से लगने वाले पत्थर के दो सौ रुपए ! उसने अंगरेज से कह दिया कि कल आ जाए । वह अभी घर पर नहीं है शाम को घसिया घर आया , तो उसकी पत्नी ने अंगरेज की सारी बातें उसे बता दीं ।
रात भर में दोनों पति - पत्नी उस पत्थर के बारे में सोचते रहे । सुबह उठते ही घसिया और उसकी पत्नी दोनों पत्थर के पास गए । ध्यान से उसे देखने लगे । सूरज की किरणों में उस पत्थर की सफेद सतह चाँदी की तरह चमक रही थी ।
उन दोनों ने आपस में बातचीत की । वे इस नतीजे पर पहुँचे कि शायद यह कोई कीमती पत्थर है । क्यों न किसी सुनार को दिखाकर इसकी जाँच करा ली जाए । बिना नाश्ता किए घसिया एक सुनार के पास जा पहुंचा ।
उसे सारी बात बताकर चलने को कहा । सुनार घसिया के साथ उसके घर आया । अच्छी तरह पत्थर को देखा - परखा , लेकिन उसकी चमक में कुछ न आया । धूप में वह पत्थर चमचमा रहा था । यह देख और सभी बातें सुन , सुनार के दिल में लालच आ गया ।
उसने सोचा - ' जब वह अंगरेज इस पत्थर से दो सौ रुपए देने को तैयार है , तो कुछ न कुछ खास बात इस पत्थर में जरूर है । ' बस , उसने घसिया से कहा कि वह उसे इस पत्थर के पाँच सौ रुपए देगा । मगर शर्त यह है कि न तो वह इसे किसी और सुनार को दिखाएगा
और न ही वह इसे अब अंगरेज को देगा । अब तो घसिया और भी सोच में पड़ गया । शाम को जब अंगरेज घसिया के घर आया , तो घसिया ने उसे सारी बात साफ - साफ बता दी ।
यह भी बता दिया कि उसे संदेह है कि यह पत्थर काफी कीमती है । अंगरेज उसकी सचाई और भोलेपन पर मुसकराने लगा । घसिया को समझाया कि इस पत्थर में ऐसी कोई विशेष बात नहीं है ।
यह केवल एक साधारण पत्थर है । बस , उसके सफेद रंग और अनूठी शक्ल के कारण , वह उसे अपने बगीचे में रखने के लिए लेना चाहता है । घसिया कुछ सोचने लगा , तो अंगरेज बोला- “ अगर तुम इस पत्थर की कीमत पाँच सौ रुपए चाहते हो , तो मैं पाँच सौ ही देने को तैयार हूँ ।
अंगरेज घसिया से यह बात कर ही रहा था कि अचानक वह सुनार भी वहाँ आ पहुँचा । घसिया ने उससे अंगरेज द्वारा उस पत्थर के पाँच सौ रुपए देने की बात कही , तो पत्थर के बारे में उसका संदेह और बढ़ गया । अंगरेज ने सुनार को भी यही समझाया कि वह कोई कीमती पत्थर नहीं है । उसकी आकृति व चमकदार सफेद रंग के कारण ही वह उसे लेना चाहता है ।
यह सुनकर उसका संदेह और पक्का हो गया । सुनार को अंगरेज की बात पर बिलकुल भी विश्वास न हुआ । वह घसिया से बोला- " मैं इस पत्थर के अब आठ सौ रुपए तक दे सकता हु घसिया बेचारा सीधा - सादा आदमी था । वह अंगरेज की तरफ देखने लगा । फिर सुनार से बोला- " सबसे पहले इन अंगरेज साहब ने पत्थर को पहचाना और उसकी कीमत लगाई है ।
इस कारण इस पत्थर को लेने का पहला अधिकार इन्हीं का है । " अंगरेज को भी सुनार पर गुस्सा आ रहा था । उसने एक बार फिर सुनार को समझाने की कोशिश की । पर सुनार के मन में लालच भी था और शंका भी कि यह पत्थर मामूली नहीं है ।
उसने आठ सौ रुपए निकालकर घसिया के हाथ में थमा दिए । घसिया बेचारा अंगरेज के चेहरे की ओर देखने लगा । पर अंगरेज ने घसिया से कहा- " ठीक है , आप यह पैसा रखिए और सुनार को ही पत्थर लेने दीजिए । " सुनार वह पत्थर उठवाकर अपने घर ले आया । बहुत - से सुनारों और पत्थरों के जानकारों को वह पत्थर बेचना चाहा , लेकिन उसे निराशा हुयी ।
लोग उसका मजाक उड़ाते और कहते- " अपने को सुनार कहता है और बेचने निकला है पत्थर । उस पत्थर के तो कोई पचास रुपए भी नहीं देगा । तब जाकर सुनार ने अपना मुड पकड़कर बैठ जाता है । उस इन्शान का दिल दिमाग से लालच का भूत उतर जाता है।
बैठे बैठे वह कई हप्ते दिनों तक मन ही मन बुदबुदाता रहा धोबी के पत्थर ने हमें अच्छा सबक सिखा दिया । ' एक दिन सुनार घसिया के घर उस अंगरेज का पता पूछने भी गया । मगर घसिया क्या बताता ! अंगरेज का पता - ठिकाना तो उसे भी पता नहीं था ।