बंगाल में एक राज्य था मयूरेश्वर । वहाँ के राजा शिलादित्य बहुत पराक्रमी , मगर निर्दयी थे । उनके दिल में दया बिल्कुल नहीं थी । प्रजा हर समय भयभीत रहती थी । डर के मारे प्रजा उनके आदेश का पालन करती थी , पर मन ही मन राजा को कोसती रहती थी । राजा शिलादित्य की कोई संतान न थी ।
बहुत से यज्ञ करने के बावजूद उन्हें संतान सुख न मिला । दुःख भुलाने के लिए राजा शिकार खेलने में मगन रहते थे । एक रात राजा ने स्वप्न में देखा कि राजवंश के कुलदेवता उनसे कह रहे हैं- ' बेटा , तुम्हारे राज्य की उत्तर दिशा में घना जंगल है । जंगल के उत्तर - पश्चिम में झरने के किनारे एक मायावी हिरण रहता है । किसी भी अमावस्या की रात में अगर तुम उसका वध कर सको , तो तुम्हें संतान सुख अवश्य मिलेगा ।
वह हिरण असल में एक शापग्रस्त महर्षि हैं , जो त्रिकालदर्शी भी हैं । ' अगले दिन सुबह ही राजा ने राजा ने राज्य ज्योतिषी को बुलाया । रात वाले स्वप्न के बारे में उनके विचार जानने थे । ज्योतिषी ने सोच - विचारकर बताया- " महाराज , वह हिरण सचमुच एक शापग्रस्त ऋषि हैं ।
फिर जब कुलदेवता ने खुद स्वप्न में ऐसा निर्देश दिया है , तो सच ही है । " राजा शिलादित्य ने मंत्री को बुलाया । राज्य की उत्तर पश्चिम दिशा के घने जंगल में मायावी हिरण का शिकार खेलने के प्रबंध का आदेश दे दिया ।
अमावस्था में दो ही दिन रह गए थे । अमावस्या के दिन सुबह राजा नदी में नहाए । कुलदेवतां के मंदिर में जाकर पूजा करने के बाद शिकार खेलने जाने के लिए तैयार हुए । पुजारी ने प्रसाद और फल दिए । रानी ने राजा के माथे पर चंदन का टीका लगाया ।
शंख ध्वनि से राजा को विदाई दी गई । विशाल सेना के साथ राजा घोड़े पर सवार होकर चल पड़े । बहुत - सा रास्ता पार कर , पूरी फौज लेकर राजा पहुँच गए राज्य की उत्तर दिशा के जंगल में । अमावस्या की काली रात थी ।
रह - रहकर हिंसक जानवरों का गर्जन सुनाई दे रहा था । झींगुर बोल रहे थे । राजा के साथी मशालें जलाकर रास्ता दिखा रहे थे । मशाल की आग को देखकर जानवरों ने इधर - उधर भागना शुरू कर दिया । राजा शिलादित्य आगे बढ़ते जा रहे थे । धीरे - धीरे घना जंगल और घना होता जा रहा था ।
राजा इतनी तेज जा रहे थे कि उनके साथ चलने वाले पिछड़ गए । कुछ दूर जाकर राजा को खयाल आया कि मशालघारी लोग पीछे ही रह गए । फिर भी वह हिरण के शिकार के लिए आगे बढ़ते रहे । राजा ने दुगनी गति से घोड़े को दौड़ाया और अंधेरे में ही आगे बढ़ते गए ।
जैसे भी हो , उन्हें मायावी हिरण को ढूँढ़ निकालना था । अचानक अंधेरे को चीरती हुई बिजली की चमक दिखाई दी । राजा को सामने एक झरना दिखाई दिया । उनका मन आनंद से नाच उठा । सोचा , शायद कुलदेवता उन्हें ठीक जगह पर ले आए हैं ।
ठीक उसी समय चारों तरफ एक मीठी खुशबू छा गई । अंधकार की काली परल हट गई । चारों दिशाएँ एक मृदु रोशनी में नहा उठीं । अमावस्या की काली रात उज्ज्वल हो उठी । अपार कौतूहल से राजा ने देखा , उसी झरने के नीचे एक हिरण खड़ा है । वह मनुष्य की आवाज में राजा को अपने पास बुला रहा था ।
राजा के मुंह से कोई आवाज नहीं निकल सकी । अचंभित होकर राजा हिरण के बुलाने पर आहिस्ता - आहिस्ता उसके पास पहुँच गए । हिरण को इतने करीब पाकर भी तीर चलाना भूल गए । हिरण बोलने लगा- “ शिलादित्य , मैं जानता हूँ कि संतान पाने के लिए तुम मेरा बध करने आए हो ।
लेकिन पहले यह बताओ , तुम संतान क्यों चाहते हो ? " राजा बोले- “ संतान न हुई , तो मेरे बाद राजा कौन बनेगा ? हमारा वंश कैसे चलेगा ? " हिरण ने कहा- " राजा का धर्म है , प्रजा की रक्षा करना ,, । जो राजा अपनी प्रजा की रक्षा नहीं करता है , उसका वंश क्यों चले ? निर्दयी , अधार्मिक राजा की संतान तो उसके पिता के अवगुणों की ही अधिकारी होगी ।
" शिलादित्य बोले- “ मैं हूँ राजा शिलादित्य । मेरा क्या धर्म है , यह मैं तुमसे सुनना नहीं चाहता । राजा जो करता है , वही धर्म है । जो लोग उसे नहीं मानते , मैं उनकी हत्या करके अपनी इच्छा को ही न्याय में बदल देता हूँ । " हिरण हंसकर बोला- " तो देर किस बात की ? तुम्हारे हाथ में तो अस्त्र है , मारो मुझे ।
” राजा ने एक तीर निकालकर धनुष में लगाया और हिरण पर निशाना साधा । बोला- “ सुनो शापग्रस्त ऋषि , मैं नहीं जानता कैसे तुम शापग्रस्त हुए । मुझे यह भी नहीं मालूम , कैसे तुम्हारी शाप मुक्ति होगी । लेकिन मौत तुम्हारे सामने खड़ी है । भगवान का नाम लो ।
मेरा यह तीर तुम्हें अभी मौत के घाट उतार देगा । " हिरण ने जोर से हंसकर कहा- “ अज्ञान , झूठा दम्भ और अविवेक राजा को शोभा नहीं देता । तुम हर तरह से राजा कहलाने के अयोग्य हो । आंखें रहते हुए भी अंधे हो । प्रजा तुमसे घृणा करती है ।
जिस राजा के लिए प्रजा के मन में श्रद्धा , मान कुछ भी नहीं है , उसे राजा होने का अधिकार ही नहीं है । " हिरण की बात से आग - बबूला होकर राजा ने हिरण पर निशाना से साधकर जोर से तीर छोड़ा । मगर यह क्या ! तीर से धनुष से निकला ही नहीं ! राजा ने फिर दुबारा तीर छोड़ने की कोशिश की ।
फिर वही हाल ! इतने अच्छे तीरंदाज होने के बावजूद , यह क्या ! हिरण हंसा और कहने लगा- " शिलादित्य , देख लिया न ! भगवान की इच्छा के सामने तुम्हारी शक्ति का कोई असर ही नहीं । राजा होते भी तुम एक साधारण मनुष्य हो । भाग्य से राजा के घर में जन्म लेकर तुम राजा तो हुए , पर राजधर्म का पालन न करने से तुम बन गए अत्याचारी । राजधर्म से दूर हो जाने पर तुम्हारे कुलदेवता ने याद दिलाने के लिए ही स्वप्न में तुम्हें मेरे पास आने के लिए कहा था ।
" राजा शिलादित्य शर्म के मारे कुछ बोल न सके । वह अपनी भूल को समझ गए । फिर बोले- " हे ऋषिवर , सुना है आप बहुत ही ज्ञानी , गुणी और सिद्ध पुरुष हैं । मैं बहुत ही शमिन्दा हूँ कि मैं राजधर्म का ठीक से पालन नहीं कर पाया । आपने मेरी आँखें खोल दीं ।
अब समझ में आया , क्यों कुलदेवता ने स्वप्न में मुझे आदेश दिया था आपके पास आने के लिए । मैं यह भी समझ गया कि आपका वध करना असम्भव है । जरा बताइए , अब मुझे क्या करना चाहिए ? " हिरण ने मुसकराकर कहा- " ने " शिलादित्य , आज ही मेरी शाप से मुक्ति हो जाएगी ।
एक ऋषि होते हुए भी धर्म से जरा - सा चूक जाने के लिए , मुझे शापग्रस्त होकर हिरण के रूप में चौदह वर्ष बिताने पड़े । जिन्होंने मुझे शाप देकर हिरण बनाया था , उन्होंने ही कहा था कि एक अत्याचारी , अधर्मी राजा को असली राजधर्म के पालन की शिक्षा देकर ही तुम्हारी मुक्ति होगी । वही होगा तुम्हारा प्रायश्चित ।
" राजा ने हिरण रूपी ऋषि को प्रणाम किया । बोले- “ ऋषिवर , शक्ति के दम्भ के कारण मैं राजधर्म भूल गया था । कृपया मुझे क्षमा करे ऋषि ने कहा- " शिलादित्य , अब लौट जाओ अपने राज्य में । कुलदेवता के कहे अनुसार , जल्दी ही तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी जो अत्यंत शूरवीर होगी । " शिलादित्य प्रसन्न मन से राजमहल की ओर लौट पड़े ।