लंका में राम - रावण संग्राम के बाद जब रावण की मृत्यु हो गई तब उत्तर दिशा से वशिष्ठ , दक्षिण से आत्रेय , पूर्व से विश्वामित्र और पश्चिम से उषंग आदि अनेक ऋषि राम का अभिनन्दन करने आये । ऋषियों ने राम से कहा- " आपने कृपा करके राक्षसों का सपरिवार संहार कर जगत की रक्षा की । सीता देवी को महान दुख मिला है । यही सोचकर हमारा हृदय उद्वेलित है । " -
सीता हंस पड़ीं और बोलीं- " हे मुनियो , आपने रावण वध के प्रति जो कहा वह प्रशंसा परिहास जैसी लगती है । निस्संदेह , यद्यपि रावण दुराचारी था किन्तु उसका वध प्रशंसा के योग्य नहीं है । " इसके बाद सीताजी ने हज़ार सिर वाले एक अन्य रावण का वृत्तान्त सुनाया । अपने शौर्य को प्रामाणित करने के लिये राम अपने मित्रों सहित पुष्पक विमान में बैठकर उसे जीतने चले ।
दल - बल सहित राम को आया देखकर सहस्त्रमुख रावण को बड़ा विस्मय हुआ । उसने सोचा इन छुद्र जीवों को मारने से मुझे क्या प्राप्त होगा । यह जिस देश से आये हैं वहीं भेज देता हूँ । केवल राम और सीता पुष्पक विमान में युद्ध क्षेत्र में रहे , शेष सभी सहस्रमुख द्वारा वापस भेज दिये गये । बहुत दिनों तक युद्ध चला । किसी की हार हो ही नहीं रही थी ।
राम के पास रावण वध के निमित्त अगस्त्य मुनि द्वारा दिया गया जो वाण था , उन्होंने सहस्रमुख पर चलाया किन्तु सहस्रमुख ने उसे अपने बायें हाथ से पकड़ लिया और अपनी एक जांघ पर रखकर तोड़ डाला । अमोघ अस्त्र के नष्ट हो जाने से राम अत्यन्त निराश हो गये । उसके बाद सहस्रमुख ने जो एक वाण छोड़ा , वह राम की छाती को भेदता हुआ पाताल में प्रवेश कर गया ।
राम के निश्चल और अचेत होते ही सृष्टि में हाहाकार मच गया । सहस्रमुख युद्ध क्षेत्र में खुशी से नाचने लगा । उल्कापात होने लगा और प्रलय के लक्षण स्पष्ट हो गये । ऋषिजन भयग्रस्त शांतिपाठ करने लगे । जानकी को हंसता हुआ देखकर उनके समक्ष ऋषियों ने प्रार्थना की । सीता अट्टहास करने लगीं । उन्होंने महाविकट रूप धर लिया । चतुर्भुज प्रत्यक्ष काली स्वरूप में पुष्पक से उतर कर , शेरनी के समान , उन्होंने कुछ ही क्षणों में रावण के एक हज़ार सिर काट डाले ।
तत्पश्चात् अन्य योद्धाओं का संहार कर उन्होंने मुंडों की माला धारण की और रावण के एक हजार सिरो के साथ क्रीड़ा करने लगीं । उनके रोम - रोम से भयानक आकृति वाली शक्तियाँ निकल कर उनके साथ रावण के सिरों को उछाल - उछाल कर खेलने लगीं । सीता के क्रोध की चरम सीमा देखकर ब्रह्मा सहित सभी देवी देवताओं ने उनसे प्रार्थना की कि अब वे अपना यह रूप त्याग दें वरन् सृष्टि का विनाश हो जायेगा ।
जानकी जी बोलीं- " मेरे पति पुष्पक विमान में वाण से बिंधे पड़े हैं । उनकी मूर्छित अवस्था में मैं जगत के कल्याण की इच्छा नहीं कर सकती । मेरे लिये चराचर जगत का एक ही ग्रास संभव है । ” हाहाकार मच गया । ब्रह्मा ने राम को स्पर्श कर उनकी मूर्छा दूर कराई । वे उठ बैठे । धनुष धारण किया किन्तु पास में सीता नहीं थीं । युद्ध स्थल में नृत्य करते महाकाली को देखकर वे काँप उठे । धनुष गिर पड़ा , उन्होंने नेत्र बन्द कर लिये ।
तब ब्रह्मा ने उन्हें सहस्रमुख के वध की कथा सुनाई और कहा कि आप सीता के बिना कुछ भी करने में असमर्थ हैं । राम ने हजारों नामों से जानकी की स्तुति की । जानकी ने पुनः सौम्य रूप धरा , तब भय त्यागकर रघुनाथ ने प्रसन्नतापूर्वक परमेश्वरी से कहा , " तुम अव्यक्ता साक्षात मेरी दृष्टि के सम्मुख होकर प्रसन्न हो । ”
अनेक प्रकार से राम ने उनकी महिमा का वर्णन किया । अन्त में राम ने उनसे दो वर माँगे । पहला- " तुम्हारा यह ईश्वरीय रूप मेरे हृदय में सदा निवास करता रहे । " और दूसरा " सहस्रमुख रावण द्वारा मुझसे अलग किये गये लोग मुझे फिर मिल जायें । " ' तथास्तु ' कहकर जानकी ने उनकी मनोकामना पूर्ण कर दी ।