रामायण में ताड़का वध | Tadka slaughter in Ramayana

रामायण में ताड़का वध


संध्या होने में अभी देर थी , किन्तु वन के इस घने भाग में अंधेरे का साम्राज्य स्थापित होने लगा था । मुनि विश्वामित्र ने मन में सोचा ' मात्र दो - ढाई घड़ी बाद सम्पूर्ण वन प्रांतर घुप्प अंधकार के बीच डूब जाएगा और आरंभ हो जाएगी मायावी राक्षसों की विनाश लीला । ' इतना सोच लेने के बाद भी मुनि के सौम्य और गंभीर मुखाकृति पर छाया विश्वास अटल रहा । 

जब यज्ञ की रक्षा के लिए राम - लक्ष्मण साथ आ रहे हैं तो निश्चय ही अशुभ की आवृत्ति नहीं हो पाएगी । इधर के वन्य - क्षेत्र की अशांति के मूल में रावण की महत्वाकांक्षा थी । दक्षिणापथ को अपने प्रभाव में लेने के बाद राक्षस राज रावण की दृष्टि उत्तराखंड पर जम गई थी । उसका मानना था- " यदि किसी क्षेत्र की धार्मिक संस्थाएँ , विद्या - केन्द्र और संस्कृति को नष्ट - भ्रष्ट कर दिया जाए , तो वहाँ के निवासी संस्कार हीन होकर पंगु हो जाते हैं ।

इनकी स्वतंत्रता की चेतना और संघर्ष की इच्छा शक्ति मर जाती है , और इनको रंच मात्र प्रयास से अपने अधीन किया जा सकता है । " यह कार्य सम्पन्न करने के लिए रावण ने ताड़का राक्षसी को चुना था । ताड़का मारीच और सुबाहु नामक उपद्रवी और क्रूर उपसेना नायकों के साथ राक्षस सैनिकों की टुकड़ी लेकर उत्तराखंड की सीमा पर आ डटी थी । 

ताड़का के नेतृत्व में मारीच और सुबाहु का आक्रमण मुख्य रूप से शांति प्रिय और सरल स्वभाव वाले ऋषियों के आश्रमों पर केन्द्रित था । राक्षस आश्रम के यज्ञकुंड में मांस और गंदगी डालकर अपवित्र कर देते । बलपूर्वक भी मुनियों की तपस्या और पूजा में बाधा डालते । मांस और मदिरा के सेवन से उन्मत्त हो , यह राक्षस आश्रमों के निकट आकर इतना उपद्रव करते कि योग , ध्यान , अध्ययन - अध्यापन की क्रिया रोक देनी पड़ती थी । 

इन राक्षसों में अधिकांश मानवभक्षी थे । यह मुनियों और उनके शिष्यों को पकड़कर खा लेते और आश्रम में आग लगाकर ध्वस्त कर देते थे । इस प्रकार अल्प समय में ही कई प्राचीन आश्रम , जो ज्ञान , ध्यान , योग और तप के केन्द्र थे , अब तक राक्षसों द्वारा नष्ट किये जा चुके थे । यह सब याद करके मुनि दुखी हो गए । 

मार्ग पर आगे बढ़ते हुए विश्वामित्र ने एक पल के लिए पीछे मुड़कर देखा , कमर में पीला दुपट्टा कसे , हाथ में धनुष और कंधे पर सुन्दर तरकस लटकाए श्यामवर्ण राम और गौरांग लक्ष्मण सधी हुई मर्यादित चाल से उनका अनुगमन कर रहे थे । कुछ क्षण पहले सफेद दाढ़ी से ढके मुनि के मुख मंडल पर जो दुख आ टिका था , वह दूर छिटक गया और नेत्रों में दुगनी चमक के साथ विश्वास आ बिराजा " यह दोनों राजकुमार कोई साधारण मानव नहीं हैं । 

यह मेरी सारी चिंताएँ और समस्याएँ पल भर में दूर करने में सक्षम हैं । इनके रहते रावण की उत्तराखंड पर राक्षसी संस्कृति थोपने की आशा निश्चय ही फलीभूत नहीं हो पाएंगी । " इस प्रगाढ़ संतुष्टि के हर्ष से भरे नेत्रों को ऋषि ने पुनः मार्ग पर केन्द्रित कर दिया था । पिछले दिनों जब कोई आश्रम राक्षस उजाड़ देते या किसी क्षेत्र निशाचरों पर मुनियों के प्रतिनिधि मंडल आते , यह प्रतिनिधि केवल अपनी समस्या से ही नहीं अवगत कराते , बल्कि क्लेश दूर करने का आग्रह भी करते थे । 

इन अवसरों पर विश्वामित्र का बलात दबाया गया क्षत्रित्व उन्हें उकसाने लगता- " यह सन्यासी वेश उतार कर क्षत्रिय बाना धारण करो और संहार कर डालो इन दुष्टों का ! " वैसे विश्वामित्र को योद्धा के रूप में आने की आवश्यकता नहीं थी । सन्यासी वेश में रहते हुए गत बारह वर्ष से वे एक विशेष यज्ञ कर रहे थे , जिसमें क्रोध करना वर्जित था । 

इसलिए इस वन प्रांत की जटिल समस्या के निराकरण के लिए उन्हें राम और लक्ष्मण को लाने जाना पड़ा था । अपने उद्देश्य में सफल होकर लौटते विश्वामित्र एकाएक मार्ग में खड़े हो गए । वे हर्ष में डूबे हुए , असावधानीवश असुरक्षित क्षेत्र में आ गये थे । राम - लक्ष्मण पास आए , तो मुनि ने कहा- " इस समय हम अत्यन्त दुष्ट और निर्दयी राक्षसी ताड़का के क्षेत्र में आ गए हैं । " 

राम और लक्ष्मण ने धनुष - बाण संभाल लिया । इसके बाद लक्ष्मण ने जिज्ञासा से पूछा- “ मुनिवर ! इस ताड़का का इतिहास क्या है ? " " सुकेत नामक यक्ष की कन्या है ताड़का ! घोर तप करके इसने ब्राह्मणी को खुश कर लिया था और वरदान में इसे दस हजार हाथियों का बल मिला । सुन्द से इसका विवाह हुआ जिससे मारीच पैदा हुआ । " “ सुन्द उत्पाती था । 

महर्षि अगस्त ने अनिष्ट करने के कारण जब सुन्द का वध किया , तब यह माँ - बेटे मुनि को खाने दोड़े । इस पर मुनि ने श्राप दे दिया कि तुम दोनों राक्षस हो जाओ । उस दिन से यह दोनों राक्षस बनकर अधर्म मचाए हैं । " विश्वामित्र ने ताड़का का अतीत बताया । इसी बीच ताड़का सामने दिख गई । वह राम और लक्ष्मण को बड़े चाव से देख रही थी । 

उसका मन बड़ा प्रसन्न था कि आज . आहार के रूप में तीन मनुष्य स्वयं चले आ रहे हैं । मुनि ने रामचन्द्र जी को संकेत किया- " सामने खड़ी है वह राक्षसी , जिसके आतंक से सारे सन्यासी त्रस्त हैं । " ताड़का मुनि को अपने विषय में बताते देख , क्रोधित हो गई और विश्वामित्र को चीर - फाड़ डालने के लिए झपट पड़ी । 

परन्तु रामचन्द्र जी सचेत थे । उन्होंने एक ही बाण में ताड़का को यमलोक भेज दिया । इस घटना से वन में रहने वाले मुनि समुदाय अत्यन्त हषित हुए । वे रात्रि में ही राम और लक्ष्मण का दर्शन करने विश्वामित्र के सिद्धपीठ आश्रम पर आने लगे । किन्तु ताड़का के मरने का समाचार राक्षस मंडली के लिए अत्यन्त दुखद व क्रोध की बात थी । 

मारीच और सुबाहु के नेतृत्व में आधी रात के समय राक्षसी सेना ने विश्वामित्र के आश्रम पर धावा बोल दिया । राम को अनुमान था , राक्षस रात में आक्रमण करेंगे । इसलिए वे सावधान थे । उन्होंने बिना फर ( नोक ) का एक बाण मारकर मारीच को समुद्र के पार लंका में गिरा दिया , फिर अग्निबाण से से सुबाहु को भस्म कर दिया । राक्षसों के समूह को लक्ष्मण ने मार डाला । 

इस बीच प्रातःकाल का सुनहला प्रकाश फैल चुका था । वृक्षों घर पक्षी खुलकर चहचहा रहे थे । ठंडी - ठंडी हवा भी बह रही थी । यह सब किसी मंगलगीत - सा सुहाना लग रहा था । तभी रामचन्द्र जी ने धीरे - गंभीर वाणी में मुनियों को सम्बोधित किया- " मुनिवर ! राक्षस समुदाय नष्ट हुआ ।

अब आप सब निर्भय होकर लोक हितार्थ यज्ञ एवं अध्यापन कार्य करें । " रावण के सांस्कृतिक आक्रमण का प्रतिकार करके रामचन्द्र जी ने जो महान कार्य किया , उसकी युग - युगांतर तक आर्यावर्त में सराहना होती रही ।

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