वानर हुआ एक सुन्दर नारी | उत्तरकांड की कथा

 उत्तर रामायण महर्षि अगस्त्य ने श्रीरामचंद्र के प्रश्न करने पर उन्हें बाली एवं सुग्रीव की कहानी सुनायी : मेरु पर्वत का मध्य शिखर अत्यन्त पवित्र माना जाता है । न केवल पृथ्वी पर , बल्कि स्वर्ग के देवता भी उसे अत्यन्त पवित्र मानते हैं । उस शिखर पर विशाल ब्रह्म सभा है । एक बार ब्रह्मा योगाभ्यास में रत थे । 

उस समय उनकी आँख में जो जल भर आया , उसके झरे हुए कणों में से एक वानर का जन्म हुआ । ब्रह्मा ने उस वानर को कुछ समय तक अपने पास रहने तथा मेरुपर्वत पर प्राप्त कन्दमूल - फलों पर निर्भर रहने का आदेश दिया । वानर मेरु शिखर पर रहने लगा । उसे भी प्रजापति ब्रह्मा अपने पिता समान लगते । 

वह उनकी आज्ञा मानता और विनम्र बना रहता । फिर भी , था तो वह वानर ही । वह दिन भर वृक्षों पर कूदता - फिरता और शाम होते ही सुन्दर फूल और फल लेकर ब्रह्मा के पास पहुँच जाता । इसी प्रकार बहुत काल बीत गया । एक दिन उस वानर को बहुत प्यास लगी । जल के लिए वह मेरु पर्वत के उत्तरी - शिखर पर पहुँचा । वहाँ उसे अनेक पक्षियों से भरा एक सरोवर दिखाई दिया ।

वानर ने अपने बदन को झटकारा और सरोवर के पास बैठकर प्यास बुझाने के लिए पानी के अन्दर अपना मुँह डालना चाहा । तभी उसे जल के अन्दर अपना प्रतिबिम्ब दिखाई दिया । उसने सोचा कि जल के भीतर एक और वानर है जो उसका प्रतिद्विन्दी है । वह उसका सामना करने के लिए तुरन्त सरोवर में कूद पड़ा और उसे खोजने के लिए उसने सारा सरोवर छान डाला । 

जब जल के भीतर का वानर नहीं मिला , तो वह फिर किनारे पर आ गया । सरोवर के किनारे पर आते ही एक विचित्र घटना हुई । मानवों से भिन्न प्राणियों के जीवन में ऐसी विचित्र घटनाएँ प्रायः हुआ करती हैं । फिर वह वानर तो ब्रह्मा के नेत्रजल से जन्मा था । जल से बाहर आते ही वह वानर एक सुन्दर नारी के रूप में परिवर्तित हो गया ।


 

वह नारी क्या थी , ईश्वर का चमत्कार था । उसका मुख मंडल चंद्र के समान श्वेत और सुन्दर था । आँखें खिली हुई कमल जैसी । बिंबफल की तरह अधर थे और मोतियों की तरह दाँत थे । विश्वमोहिनी रूप लिये वह नारी अभी वहाँ बैठी हुई थी कि इन्द्र और सूर्य उधर आ निकले । वे ब्रह्मा का दर्शन करके लौट रहे थे । 

इन्द्र और सूर्य की दृष्टि एक साथ उस अपूर्व सुन्दरी पर पड़ी । उन्होंने ऐसा सौन्दर्य देवलोक में भी नहीं देखा था । उनका चित्त स्थिर न रहा और वे दोनों ही उस पर मोहित हो गये तथा उससे प्रणय की प्रार्थना की । उस नारी ने दोनों का प्रेम स्वीकार कर लिया और इन्द्र के द्वारा बाली को और सूर्य के द्वारा सुग्रीव को जन्म दिया । 

इन्द्र ने अपने पुत्र बाली को स्वर्ण - कमलों की माला भेंट की तथा सूर्य ने अपने पुत्र सुग्रीव के लिए हनुमान की मैत्रा का निरूपण किया । इसके बाद नारी बना वह वानर अपने पूर्व रूप को प्राप्त हो गया । उसने अपने दोनों पुत्रों का पालन - पोषण किया । वही वानर ऋक्षराज है । 

इसके बाद ब्रह्मा के आदेश से अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर ऋक्षराज किष्किन्धा पहुँचा । वह वानरों की इस नगरी का राजा बना और उसने सप्त द्वीपों में फैले वानरों को अपनी प्रजा बनाया । " हे राम , इस प्रकार ऋक्षराज बाली और सुग्रीव की माता भी हैं - और पिता भी । " अगस्त्य ने कहानी समाप्त की । 

श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक के बाद काफी दिनों तक अतिथियों का सत्कार होता रहा । इसके बाद सब एक - एक करके अपने नगरों को लौटने लगे । श्रीराम ने सबके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और सबको यथोचित सत्कार के साथ विदा किया । भरत के निमंत्रण पर आये काशी नरेश प्रतर्द्धन तथा अन्य राजा भी अपने - अपने देशों को लौट गये । 

महाराजा जनक और महाराजा कैकेय भी पधारे । भरत एवं लक्ष्मण उन्हें पहुँचाने गये । राम के साथ आये हुए वानर एवं राक्षसों ने दो माह तक अयोध्या में सुखपूर्वक निवास किया । श्रीराम के सभासद , अयोध्या के विशेष नागरिक सारे दिन अभ्यागतों के स्वागत - सत्कार में लगे रहते । हृदय में कृतार्थता का अनुभव करते एक दिन वे लोग भी चले गये । 

सुग्रीव , अंगद , हनुमान का श्रीराम ने भव्य सत्कार किया । इसी प्रकार विभीषण तथा अन्य राक्षसों का भी सम्मान किया । वे सब किष्किंधा एवं लंका को लौट गये । अब राजा रामचन्द्र महारानी सीता के साथ वन - विहार करते , मित्रों के साथ गोष्ठियों में भाग लेते एवं राजकार्य देखते । क्रमशः महारानी सीता में गर्भ के लक्षण प्रकट हुए । 

तब एक दिन श्रीराम ने सीता से कहा , " सीता , तुम्हारे हृदय में यदि कोई कामना , कोई अभिलाषा हो तो कहो , मैं अवश्य उसे पूरी करूँगा । "  सीता ने नम्र भाव से सिर झुका लिया और मन्द - मन्द मुस्कराते हुए कहा , " प्रभो , मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं गंगा - तट पर बने ऋषियों के आश्रमों को फिर से देखूँ , वहाँ करन्दमूल - फल खाऊँ और वृक्षों के नीचे विहार करूँ । "  

वह तो बड़ा शुभ विचार है । मैं कल ही तुम्हारे वन - विहार की व्यवस्था करता हूँ । ” श्रीरामचंद्र ने आश्वासन दिया । इसके बाद राम अपने मित्रों से मिलने गये । बड़ी देर तक आमोद - प्रमोद और मनोरंजन में समय बिताने के बाद श्रीराम ने भद्र नाम के एक गुप्तचर से पूछा , " भद्र , मुझे बताओ , मेरे और सीता के विषय में , मेरी माताओं तथा मेरे भाइयों के विषय में प्रजा का क्या विचार है ? " भद्र ने हाथ जोड़कर कहा , " महाराज , प्रजा तो अनेक प्रकार से सोच - विचार करती है , पर अधिकांश लोग रावण - संहार के बारे में ही मुख्य चर्चा करते हैं । " 

श्रीराम के मन में संशय हुआ कि भद्र अवश्य ही कोई विशेष बात छिपा रहा है । उन्होंने भद्र से कहा , " भद्र , तुम राज्य के विशेष गुप्तचर हो । तुम्हारा कर्त्तव्य है कि राजा को हर बात से अवगत कराया जाये , भले ही वह बात अच्छी हो या बुरी ! मुझसे सब सच सच कहो ! तुम कुछ भी न छिपाकर अपना कर्त्तव्य निभाओ , इससे मैं भी अपने कर्त्तव्य में सावधान रह सकूँगा । " “ 

महाराज , आपने समुद्र पर सेतु बांधा , रावण जैसे प्रचण्ड प्रतापी राक्षस का संहार किया - सारी प्रजा आपका यशगान करती है और आप पर गर्व करती है । किन्तु सबके मन में एक ही आक्षेप है कि रावण सीता को अपनी गोद में उठाकर लंका ले गया और उन्हें बहुत समय तक अपने अधीन रखा , तब भी आपने सीता को स्वीकार कर लिया और उन्हें राजमहिषी पद दिया , इसलिए आपमें सद् - असद् का विवेक नहीं है । " 

भद्र ने अत्यन्त संकोच के साथ - साथ सब सच सच कह दिया । भद्र के मुख से इतने बड़े आक्षेप को सुनकर रामचन्द्र व्याकुल हो उठे । उन्होंने वहाँ उपस्थित अपने अन्य मित्रों से पूछा , " मित्रो , भद्र ने जो कुछ कहा , क्या वह सत्य है ? " सबने अपने मस्तक झुका लिये और भद्र की बात को सच बताया ।

श्रीरामचन्द्र ने सारे मित्रों को विदा किया और द्वारपाल को आदेश दिया , " शीघ्र जाकर भरत , लक्ष्मण और शत्रुघ्न को यहाँ ले आओ ! " आज्ञा पाकर शीघ्र ही तीनों भाई रामचन्द्र के समक्ष उपस्थित हुए । राम का मुख - मंडल निस्तेज था और नेत्र अश्रुपूरित थे । 

श्रीराम दय से अपने भाइयों का आलिंगन किया और उन्हें आसनों पर ' बैठने के लिए कहा । इसके बाद सीता के विषय में जो जनश्रुति , जो अपवाद उन्होंने सुना था , वह अपने भाइयों को कह सुनाया । इसके पश्चात् राम ने कहा , " सीता की अग्नि - परीक्षा हो चुकी है , वह निष्याप है । मेरी अन्तरात्मा भी यही साक्षी देती है । लक्ष्मण , अग्नि तथा अन्य देवताओं ने सीता की पवित्रता की जो साक्षी दी थी , वह तुम्हारे समक्ष ही की तो घटना है । 

इसके बाद ही सीता को स्वीकार कर मैं अयोध्या में लाया और उन्हें योग्य राज्यमहिषी पद मिला । फिर भी , मैं यह आक्षेप सहन नहीं कर सकता । मैं अपने प्राण त्याग सकता हूँ , तुम्हें भी त्याग सकता हूँ , पर अपयश का भागी बनकर नहीं जी सकता । इस कलंक की तुलना में सीता का परित्याग अधिक सहने योग्य है । इस लोकापवाद से बढ़कर मेरे लिए कोई बड़ा दुख नहीं हो सकता । 

इसलिए , हे लक्ष्मण , तुम कल प्रातःकाल सीता को रथ में ले जाकर तमाम नदी के तट पर वाल्मीकि मुनि के आश्रम के निकट छोड़ आओ । मेरी इस आज्ञा का प्रतिवाद न करो ! सीता के विषय में कुछ न कहो , तुम्हें मेरी सौगन्ध है । सीता ने ऋषियों के आश्रम में देखने की इच्छा प्रकट की है । इस इच्छा को इसी रूप में पूर्ण होना था । यही होनहार है । " 

रामचन्द्र ने अवरुद्ध कंठ से कहा । अपनी बात समाप्त कर श्रीराम ने गहरी साँस ली और अत्यन्त व्यथित होकर राजभवन के भीतर चले गये । यह बड़े भाई राम की ही नहीं महाराजा राम की आज्ञा थी । भरत , लक्ष्मण , शत्रुघ्न तीनों अनुज ही तो उनके अनुवर्ती थे । उनके भक्त थे । राम उन्हें प्राणों से भी प्रिय थे , उनकी आज्ञा भी । दूसरे दिन प्रातःकाल लक्ष्मण ने सुमंत्र को रथ प्रस्तुत करने के लिए कहा । लक्ष्मण की दशा हृदय विदारक थी । कंठ सूख रहा था । 

भारी हृदय से उन्होंने सुमंत्र से कहा , " सुमंत्र , महाराजा रामचन्द्र का आदेश है कि सीता को मुनियों के आश्रमों में ले जायें । मैं और सीता माता चलने के लिए प्रस्तुत हैं । आप तुरन्त रथ तैयार करें । रथ पर मुलायम बिछावन हो , जिससे सीता माता को कष्ट न हो । " 

सुमंत्र ने रथ प्रस्तुत किया । अब लक्ष्मण सीता के पास जाकर बोले , " भाभी , आपने राजा राम के सम्मुख आश्रम देखने की इच्छा प्रकट की थी । उन्होंने मुझे आपको वन में ले जाने का आदेश दिया है । आइये , रथ प्रस्तुत है । हम शीघ्र चलते हैं । " 

लक्ष्मण की बात सुनकर सीता परमानन्दित हुई । उन्होंने मुनि पत्नियों एवं कन्याओं के योग्य , वस्त्र - आभूषण एवं अन्य उपहार सामग्री ली , तथा लक्ष्मण के साथ रथ में बैठकर वन - भ्रमण के लिए निकल पड़ीं । रथ तीव्र गति से बढ़ने लगा । सीता को अनेक अपशकुन दिखाई देने लगे । सीता ने शंकित होकर लक्ष्मण से बोली भाईया  , लक्ष्मण सास माता सबके सब कुशल छेम से हैं ? मैंने आते समय उनके दर्शन नहीं किये ! " 

लक्ष्मण का हृदय व्याकुल था , फिर भी प्रकट रूप में शांत - संयत रहकर उन्होंने कहा , " भाभी , वे सब कुशल हैं ! " रात होने तक रथ गोमती तीर्थ स्थल पर जा पहुंचा । रात वहीं बिताया गया सुबह होते ही वे यात्रा पर निकल दिए फिर दोपहर होने तक गंगा - के किनारे पहुँच जाते है । 

गंगा को देखते ही लक्ष्मण का दुख उमड़ पड़ा । उनकी आँखों से आँसू बहने लगे । यह देख सीता शंकित हो उठीं , उन्होंने पूछा , “ लक्ष्मण , क्या बात है ? तुम रो क्यों रहे हो ? मैं तो यह सोचकर प्रसन्न हो रही हूँ कि अनेक दिनों की मेरी इच्छा पूरी हो रही है । ऐसी स्थिति में तुम्हारा रुदन मेरे आनन्द में बाधा पहुँचा रहा है । 

चलो , हम शीघ्र ही नौका से गंगा पार करते हैं । मैं मुनियों के आश्रमों को देखना चाहती हूँ । देखो , मैं मुनि - पत्नियों और उनकी कन्याओं के लिए कितने उपहार लायी हूँ । वहाँ हम आज की रात बिताकर कल पुनः अयोध्या के लिए प्रस्थान करेंगे । हम लौटकर शीघ्र ही श्रीराम के दर्शन करना चाहती हूँ । " 

लक्ष्मण ने आँखें पोंछ लीं । फिर निकटवर्ती नाविकों से नौका लाने के लिए कहा । सुमंत्र गंगा के इस तट पर ही रह गये । सीता और लक्ष्मण नाव से उस पार पहुँचे । अब वह क्षण सामने था जब लक्ष्मण को अपने कठोर कर्त्तव्य का पालन करना था । लक्ष्मण ने वन में सीता की तपस्या देखी थी । 

राम के प्रति उनका अद्भुत प्रेम देखा था । उनकी पवित्रता देखी थी । अब उन्हीं सीता को राम का कठोर संदेश देना था । लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर सीता को प्रणाम किया , फिर भारी हृदय से कहा , “ माता , मेरे भाई ने मेरे हृदय मे शूल गाड़ दिया है । ऐसा पापपूर्ण कार्य करने से पहले यदि मैं मर जाता तो बहुत ही अच्छा होता ! " 

यह कहकर लक्ष्मण दुख के आवेश में वहीं लुढ़क पड़े । लक्ष्मण की यह दशा देख सीता घबरा उठीं , बोलीं , " लक्ष्मण , तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि तुम आवेशग्रस्त हो गये हो । तुम्हें तुम्हारे भाई की सौगन्ध है , तुम मुझसे सब स्पष्ट कहो ! तुम्हारी इस व्यथा का क्या कारण है ? " 

तब लक्ष्मण ने रुद्ध कंठ से सीता से कहा , " माता , जब महाराज अपने मित्रों के साथ वार्तालाप कर रहे थे , तब आपके विषय में लोकावाद उन्होंने सुना । वह अपवाद आपके सुनने योग्य नहीं है । पर उस अपवाद से व्यथित होकर मेरे भाई राजा राम ने आपका त्याग कर दिया है । 

श्रीराम अच्छी तरह जानते हैं कि आप निर्दोष हैं । मैं भी इसका साक्षी हूँ । फिर भी अपयश और कलंक को न सह पाने के कारण श्रीराम ने आपके त्याग का निर्णय लिया है । प्रजा की प्रसन्नता राम के लिए सर्वोपरि है । आपको यहीं छोड़कर मुझे तुरन्त अयोध्या लोट जाना है । यही राजा का आदेश है । आप अपने मन को किसी प्रकार शान्त कर पुण्यप्रद मुनियों के आश्रम में निवास कीजिए । 

महामुनि वाल्मीकि स्वर्गवासी महाराज दशरथ के अनन्य मित्र हैं । वे अवश्य आपको शरण देंगे । "  लक्ष्मण के मुख से अपने त्याग की बात सुनकर सीता का मस्तक चकराने लगा । उन्हें लगा आकाश टुकड़े - टुकड़े हो गया है , पृथ्वी विदीर्ण हो गयी है , नदियाँ सूख गयी हैं , पक्षी गूंगे हो गये है , हवाएँ रुक गयी हैं और उनका हृदय एक विशाल मरुस्थल बन गया है । 

कुछ क्षण वे चुप रहीं , फिर संभलकर दीनतापूर्वक रोती हुई बोलीं , " लक्ष्मण , मैंने यातनाएँ झेलने के लिए ही जन्म लिया है । अवश्य ही पिछले जन्म में मैंने कोई पाप किया था । अवश्य ही मैं किसी युगल दम्पति के विरह का कारण बनी थी कि मुझे यह विरह - व्यथा सहने को मिली । 

वनवास में राम मेरे साथ थे , इसलिए मैं प्रसन्न थी , पर यह वनवास कैसे कटेगा ? राम के बिना यह जगत् शून्य है । लक्ष्मण , मैं अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ ? यदि मुनिगण मुझसे पूछेंगे कि मेरे पति ने मुझे क्यों त्याग दिया , तो इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दूँगी ? मैं गंगा में कूदकर अपने प्राण त्याग सकती थी , पर इससे रघुकुल की संतति का नाश होगा । 

तुमने अपने भाई की आज्ञा का पालन किया , अब तुम जा सकते हो । सभी सासों से मेरा प्रणाम कहना । राजा से कहना , मैंने उनका कुशल - मंगल पूछा है और उन्हें साष्टांग प्रणाम कहा है । वे यशस्वी हों ! उनके कलंक को मिटाना मेरा कर्त्तव्य है । 

उनसे मेरी यह अंतिम कामना निवेदन करना कि वे न्याय एवं धर्म का आश्रय लेकर राज्य शासन करें और अपने कुलजनों एवं प्रजा को समान दृष्टि से देखें और विश्व को धवल करने वाला देव - दुर्लभ यश प्राप्त करें । "

उत्तर कांड में कितने दोहे हैं?

उत्तर काण्ड में 126 दोहा, 4 श्लोक,14 छंद 5 सोरठा, एवं 125 चौपाई हैं ।



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